________________
आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक ने अपने लिए नाना प्रकार के भोजन तैयार किये होंगे, उसके पश्चात् वह साधुओं के लिए अशनादि चतुर्विध आहार तैयार करेगा । उस आहार को साधु भी खाना या पीना चाहेगा या उस आहार में आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा। इसलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों ने पहले से यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह गृहस्थ-संसक्त उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे । सूत्र- ४०८
गृहस्थ के साथ ठहरने वाले साधु के लिए वह कर्मबन्ध का कारण हो सकता है, क्योंकि वहीं गृहस्थ अपने स्वयं के लिए पहले नाना प्रकार के काष्ठ-ईंधन को काटेगा, उसके पश्चात् वह साधु के लिए भी विभिन्न प्रकार के ईंधन को काटेगा, खरीदेगा या किसी से उधार लेगा और काष्ठ से काष्ठ का घर्षण करके अग्निकाय को उज्ज्वलित एवं प्रज्वलित करेगा । ऐसी स्थितिमें सम्भव है वह साधु भी गृहस्थ की तरह शीत निवारणार्थ अग्नि का आताप और प्रताप लेना चाहेगा तथा उसमें आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा । इसीलिए तीर्थंकर भगवानने पहले से ही भिक्षु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह गृहस्थ संसक्त उपाश्रयमें स्थानादि कार्य न करे सूत्र-४०९
वह भिक्षु या भिक्षुणी रात में या विकाल में मल-मूत्रादि की बाधा होने पर गृहस्थ के घर का द्वारभाग खोलेगा, उस समय कोई चोर या उसका सहचर घर में प्रविष्ट हो जाएगा, तो उस समय साधु को मौन रखना होगा । ऐसी स्थिति में साधु के लिए ऐसा कहना कल्पनीय नहीं है कि यह चोर प्रवेश कर रहा है, या प्रवेश नहीं कर रहा है, यह छिप रहा है या नहीं छिप रहा है, नीचे कूद रहा है या नहीं कूदता है, बोल रहा है या नहीं बोल रहा है, इसने चूराया है, या किसी दूसरे ने चूराया है, उसका धन चूराया है अथवा दूसरे का धन चूराया हैद यही चोर है, या यह उसका उपचारक है, यह घातक है, इसी ने यहाँ यह कार्य किया है । और कुछ भी न कहने पर जो वास्तव में चोर नहीं है, उस तपस्वी साधु पर चोर होने की शंका हो जाएगी । इसीलिए तीर्थंकर भगवान ने पहले से ही साधु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है यावत् वहाँ कायोत्सर्गादि क्रिया करे। सूत्र-४१०
जो साधु या साध्वी उपाश्रय के सम्बन्ध में यह जाने कि उसमें घास के ढ़ेर या पुआल के ढ़ेर, अंडे, बीज, हरियाली, ओस, सचित्त जल, कीड़ीनगर, काई, लीलण-फूलण, गीली मिट्टी या मकड़े के जालों से युक्त हैं, तो इस प्रकार के उपाश्रय में वह स्थान, शयन आदि कार्य न करें। यदि वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि उसमें घास के ढ़ेर या पुआल का ढेर, अंडों, बीजों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त नहीं है तो इस प्रकार के उपाश्रय में वह स्थानशयनादि कार्य करे। सूत्र-४११
पथिकशालाओं में, उद्यान में निर्मित विश्रामगृहों में, गृहस्थ के घरों में, या तापसों के मठों आदि में जहाँ (अन्य सम्प्रदाय के) साधु बार-बार आते-जाते हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधुओं को मासकल्प आदि नहीं करना चाहिए। सूत्र - ४१२
हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशाला आदिमें साधु भगवंतोंने ऋतुबद्ध मासकल्प या वर्षावास कल्प बीताया है, उन्हीं स्थानोंमें अगर वे बिना कारण पुनः पुनः निवास करते हैं, तो उनकी वह शय्या कालातिक्रान्त दोषयुक्त होती है। सूत्र - ४१३
हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशालाओं आदि में, जिन साधु भगवंतों ने ऋतुबद्ध कल्प या वर्षावास कल्प बीताया है, उससे दूगुना-दूगुना काल अन्यत्र बीताये बिना पुनः उन्हीं में आकर ठहर जाते हैं तो उनकी वह शय्या उपस्थान दोषयुक्त हो जाती है। सूत्र-४१४
आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कईं श्रद्धालु हैं जैसे कि गृहस्वामी, गृह
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 72