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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक श्रमणों के या ब्राह्मणों के जो छत्र, पात्र, दंड, लाठी, ऋषि-आसन, नालिका, वस्त्र, चिलिमिली मृगचर्म, चर्मकोश, या चर्म-छेदनक हैं, वे अच्छी तरह से बंधे हुए नहीं हैं, अस्त-व्यस्त रखे हुए हैं, अस्थिर हैं, कुछ अधिक चंचल हैं । रात्रि में या विकाल में अन्दर से बाहर या बाहर से अन्दर (अयतना से) नीकलता-जाता हुआ साधु यदि फिसल पड़े या गिर पड़े (तो उनके उक्त उपकरण टूट जाएंगे) अथवा उस साधु के फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथ, पैर, सिर या अन्य इन्द्रियों के चोट लग सकती है या वे टूट सकते हैं, अथवा प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को आघात लगेगा, वे दब जाएंगे यावत् वे प्राण रहित हो जाएंगे। इसलिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि इस प्रकार के उपाश्रय में रात को या विकाल में पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए तथा यतना पूर्वक गमनागमन करना चाहिए। सूत्र-४२३ वह साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहपति के घरों, परिव्राजकों के मठों आदि को देख-जान कर और विचार करके कि यह उपाश्रय कैसा है ? इसका स्वामी कौन है ? फिर उपाश्रय की याचना करे। जैसे कि वहाँ पर या उस उपाश्रय का स्वामी है, समधिष्ठाता है, उससे आज्ञा माँगे और कहे- आयुष्मन् ! आपकी ईच्छानुसार जितने काल तक और जितना भाग आप देना चाहें, उतने काल तक, उतने भाग में हम रहेंगे। गृहस्थ यह पूछे कि आप कितने समय तक यहाँ रहेंगे?" इस पर मुनि उत्तर दे- 'आयुष्मन् सद्गृहस्थ ! आप जितने समय तक और उपाश्रय के जितने भाग में ठहरने की अनुज्ञा देंगे, उतने समय और स्थान तक में रहकर फिर हम विहार कर जाएंगे। इसके अतिरिक्त जितने भी साधर्मिक साधु आएंगे, वे भी आपकी अनुमति के अनुसार उतने समय और उतने भाग में रहकर फिर विहार कर जाएंगे। सूत्र - ४२४ साधु या साध्वी जिस गृहस्थ के उपाश्रय में निवास करें, उसका नाम और गोत्र पहले से जान ले । उसके पश्चात् उसके घर में निमंत्रित करने या न करने पर भी उसके घर या अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक-अनैषणीय जानकर ग्रहण न करें। सूत्र - ४२५ वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि से युक्त हो, सचित्त जल से युक्त हो, तो उसमें प्राज्ञ साधु-साध्वी को निर्गमन-प्रवेश करना उचित नहीं है और न ही ऐसा उपाश्रय वाचना, यावत् चिन्तन के लिए उपयुक्त है। ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे। सूत्र-४२६ वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जिसमें निवास के लिए गृहस्थ के घर में से होकर जाना पड़ता हो, अथवा जो उपाश्रय गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध है, वहाँ प्राज्ञ साधु का आना-जाना उचित नहीं है और न ही ऐसा उपाश्रय वाचनादि स्वाध्याय के लिए उपयुक्त है । ऐसे उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे। सूत्र-४२७ यदि साधु या साध्वी ऐसे उपाश्रय को जाने कि इस उपाश्रय-बस्ती में गृह-स्वामी, उसकी पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ पुत्रवधूएं, दास-दासियाँ आदि परस्पर एक दूसरे को कोसती हैं झिड़कती हैं, मारती-पीटती, यावत् उपद्रव करती हैं, प्रज्ञावान साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में न तो निर्गमन-प्रवेश ही करना योग्य है, और न ही वाचनादि स्वाध्याय करना उचित है । यह जानकर साधु इस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे। सूत्र - ४२८ साधु या साध्वी अगर जाने कि इस उपाश्रय में गृहस्थ, उसकी पत्नी, पुत्री यावत् नौकरानियाँ एक-दूसरे के शरीर पर तेल, घी, नवनीत या वसा से मर्दन करती हैं या चुपड़ती हैं, तो प्राज्ञ साधु का वहाँ जाना-आना ठीक नहीं है मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 75
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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