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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक है तो उनसे वह अशनादि आहार की स्वयं याचना करे या वह गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यह दूसरी पिण्डैषणा है।
(३) तीसरी पिण्डैषणा है-इस क्षेत्र में पूर्व, आदि चारों दिशाओं में कईं श्रद्धालु व्यक्ति रहते हैं, जैसे कि वे गृहपति, यावत् नौकरानियाँ हैं । उनके यहाँ अनेकविध बर्तनों में पहले से भोजन रखा हुआ होता है, जैसे कि थाल में, तपेली या बटलोई में, सरक में, परक में, वरक में । फिर साधु यह जाने कि गृहस्थ का हाथ तो (देय वस्तु से) लिप्त नहीं है, बर्तन लिप्त है, अथवा हाथ लिप्त है, बर्तन अलिप्त है, तब वह पात्रधारी या पाणिपात्र साधु पहले ही उसे देखकर कहे तुम मुझे असंसृष्ट हाथ में संसृष्ट बर्तन से अथवा संसृष्ट हाथ से असंसृष्ट बर्तन से, हमारे पात्र में या हाथ पर वस्तु लाकर दो । उस प्रकार के भोजन को या तो वह साधु स्वयं माँग ले, या फिर बिना माँगे ही गृहस्थ लाकर दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय समझकर मिलने पर ले ले । यह तीसरी पिण्डैषणा है।
(४) चौथी पिण्डैषणा है-भिक्षु यह जाने कि यहाँ कटकर तुष अलग किये हुए चावल आदि अन्न है, यावत् भुने शालि आदि चावल हैं, जिनके ग्रहण करने पर पश्चात्-कर्म की सम्भावना नहीं है और न ही तुष आदि गिराने पड़ते हैं, इस प्रकार के धान्य यावत् भुने शालि आदि चावल या तो साधु स्वयं माँग ले; या फिर गृहस्थ बिना माँगे ही उसे दे तो प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होने पर ले ले । यह चौथी पिण्डैषणा है।
(५) पाँचवी पिण्डैषणा है-...साधु यह जाने कि गृहस्थ के यहाँ अपने खाने के लिए किसी बर्तन में या भोजन रखा हुआ है, जैसे कि सकोरे में, काँसे के बर्तन में, या मिट्टी के किसी बर्तन में ! फिर यह भी जान जाए कि उसके हाथ
और पात्र जो सचित्त जल से धोए थे, अब कच्चे पानी से लिप्त नहीं है । उस प्रकार के आहार को प्रासुक जानकर या तो साधु स्वयं माँग ले या गृहस्थ स्वयं देने लगे तो वह ग्रहण कर ले । यह पाँचवी पिण्डैषणा है।
(६) छठी पिण्डैषणा है-...भिक्षु यह जाने कि गृहस्थ ने अपने लिए या दूसरे के लिए बर्तन में से भोजन नीकाला है, परन्तु दूसरे ने अभी तक उस आहार को ग्रहण नहीं किया है, तो उस प्रकार का भोजन गृहस्थ के पात्र में हो या उसके हाथ में हो, उसे प्रासुक और एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे । यह छठी पिण्डैषणा है।
(७) सातवीं पिण्डैषणा है-गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी वहाँ बहु-उज्झितधर्मिक भोजन जाने, जिसे अन्य बहुत से द्विपद-चतुष्पद श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी लोग नहीं चाहते, उस प्रकार के भोजन की स्वयं याचना करे अथवा वह गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर ले ले । यह सातवीं पिण्डैषणा है।
(८) इसके पश्चात् सात पानैषणाएं हैं । इन सात पानैषणाओं में से प्रथम पानैषणा इस प्रकार है-असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र । इसी प्रकार शेष सब पानैषणाओं का वर्णन समझना । इतना विशेष है कि चौथी पानैषणा में नानात्व का निरूपण है-वह भिक्षु या भिक्षुणि जिन पान के प्रकारों के सम्बन्ध में जाने, यथा-तिल का धोवन, तुष का धोवन, जौ का धोवन (पानी), चावल आदि का पानी, कांजी का पानी या शुद्ध उष्णजल । इनमें से किसी भी प्रकार के पानी के ग्रहण करने पर निश्चय ही पश्चात्कर्म नहीं लगता हो तो उस प्रकार के पानी को प्रासुक और एषणीय मानकर ग्रहण कर ले। सूत्र-३९७
इन सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानैषणाओं में से किसी एक प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधु इस प्रकार न कहे कि इन सब साधु-भदन्तों ने मिथ्यारूप से प्रतिमाएं स्वीकार की हैं, एकमात्र मैंने ही प्रतिमाओं को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया है । (अपितु कहे) जो यह साधु-भगवंत इन प्रतिमाओं को स्वीकार करके विचरण करते हैं, जो मैं भी इस प्रतिमा को स्वीकार करके विचरण करता हूँ, ये सभी जिनाज्ञा में उद्यत हैं और इस प्रकार परस्पर एक-दूसरे की समाधिपूर्वक विचरण करते हैं । इस प्रकार जो साधु-साध्वी पिण्डैषणा-पानैषणा का विधिवत् पालन करते हैं, उन्हीं में भिक्षुभाव की या ज्ञानादि आचार की समग्रता है।
____ अध्ययन-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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