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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक किन्तु उस आहार को लेकर एकान्तमें जाए । वहाँ जाकर जीव-जन्तु, काई, लीलण-फूलण, गीली मिट्टी, मकड़ी जाले
आदि से रहित किसी निरवद्य उद्यान में या उपाश्रय में बैठकर उक्त फल के खाने योग्य सार भाग का उपभोग करे और फेंकने योग्य बीज, गुठलियों एवं काँटों को लेकर वह एकान्त स्थल में चला जाए यावत् प्रमार्जन करके उन्हें परठ दे। सूत्र-३९३
साधु या साध्वी को यदि गृहस्थ बीमार साधु के लिए खांड आदि की याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड़-लवण या उद्भिज-लवण को विभक्त करके उसमें से कुछ अंश नीकालकर, देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उसे अप्रासुक, अनैषणीय समझकर लेने से मना कर दे। कदाचित् सहसा उस नमक को ग्रहण कर लिया हो, तो मालूम होने पर वह गृहस्थ यदि निकटवर्ती हो तो, लवणादि को लेकर वापिस उसके पास जाए । वहाँ जाकर कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! तुमने मुझे यह लवण जानबूझ कर दिया है या अनजाने में ? यदि वह कहे-अनजाने में ही दिया है, किन्तु आयुष्मन् ! अब यदि आपके काम आने योग्य है तो मैं आपको स्वेच्छा से जानबूझ कर देता हूँ। आप अपनी ईच्छानुसार इसका उपभोग करें या परस्पर बाँट लें । घर वालों के द्वारा इस प्रकार की अनुज्ञा मिलने तथा वह वस्तु समर्पित की जाने पर साधु अपने स्थान पर आकर (अचित्त हो तो) उसे यतनापूर्वक खाए तथा पीए।
यदि स्वयं उसे खाने या पीने में असमर्थ हों तो वहाँ आस-पास जो साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ एवं अपरिहारिक साधु रहते हों, उन्हें दे देना चाहिए। यदि वहाँ आस-पास कोई साधर्मिक आदि साधु न हों तो उस पर्यास से अधिक आहार को जो परिष्ठापनविधि बताई है, तदनुसार एकान्त निरवद्य स्थान में जाकर परठ दे । यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है।
अध्ययन-१ - उद्देशक-११ सूत्र-३९४
स्थिरवासी सम-समाचारी वाले साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करनेवाले साधु भिक्षामें मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर कहते हैं जो भिक्षु ग्लान है, उसके लिए तुम यह मनोज्ञ आहार ले लो और उसे दे दो। अगर वह रोगी भिक्षु न खाए तो तुम खा लेना । उस भिक्षुने उनसे वह आहार को अच्छी तरह छिपाकर रोगी भिक्षु को दूसरा आहार दिखलाते हुए कहता है-भिक्षुओं न आपके लिए यह आहार दिया है। किन्तु यह आहार आपके लिए पथ्य नहीं है, यह रूक्ष है, तीखा है, कड़वा है, कसैला है, खट्टा है, अधिक मीठा है, अतः रोग बढ़ानेवाला है। इससे आपको कुछ भी लाभ नहीं होगा । इस प्रकार कपटाचरण करनेवाला भिक्षु मातृस्थान स्पर्श करता है । भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। किन्तु जैसा भी आहार हो, उसे वैसा ही दिखलाए-रोगी को स्वास्थ्य लाभ हो, वैसा पथ्य आहार देकर उसकी सेवा करे सूत्र-३९५
यदि समनोज्ञ स्थिरवासी साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधुओं को मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर यों कहे कि जो भिक्षु रोगी है, उसके लिए यह मनोज्ञ आहार ले जाओ, अगर वह रोगी भिक्षु इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे पास ले आना, क्योंकि हमारे यहाँ भी रोगी साधु है । इस पर आहार लेने वाला वह साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विघ्न उपस्थित न हुआ तो यह आहार वापस ले आऊंगा । उसे उन पूर्वोक्त कर्मों के आयतनों का सम्यक् परित्याग करके (यथातथ्य व्यवहार करना चाहिए)। सूत्र-३९६
अब संयमशील साधु को सात पिण्डैषणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चाहिए।
(१) पहली पिण्डैषणा-असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र । हाथ और बर्तन (सचित्त) वस्तु से असंसृष्ट हो तो उनसे अशनादि आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले । यह पहली पिण्डैषणा है।
(२) दूसरी पिण्डैषणा है-संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र । यदि दाता का हाथ और बर्तन (अचित्त वस्तु से) लिप्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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