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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक श्रमण ! इस आहार में से जितना हम खा-पी सकेंगे, खा-पी लेंगे, अगर हम यह सारा का सारा उपभोग कर सके तो सारा खा-पी लेंगे। यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनादी की) समग्रता है। ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र-३८९
साधु या साध्वी यदि जाने कि दूसरे के उद्देश्य से बनाया गया आहार देने के लिए नीकाला गया है, यावत् अप्रासुक एवं अनैषणीय जानकर स्वीकार न करे । यदि गृहस्वामी आदि ने उक्त आहार ले जाने की भलीभाँति अनुमति दे दी है। उन्होंने वह आहार उन्हें अच्छी तरह से सौंप दिया है यावत् तुम जिसे चाहे दे सकते हो तो उसे यावत् प्रासुक और एषणीय समझकर ग्रहण कर लेवे। - यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१ - उद्देशक-१० सूत्र-३९०
कोई भिक्षु साधारण आहार लेकर आता है और उन साधर्मिक साधुओं से बिना पूछे ही जिसे चाहता है, उसे बहुत दे देता है, तो ऐसा करके वह माया-स्थान का स्पर्श करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए।
असाधारण आहार प्राप्त होने पर भी आहार को लेकर गुरुजनादि के पास जाए, कहे-"आयुष्मन् श्रमणों! यहाँ मेरे पूर्व-परिचित तथा पश्चात्-परिचित, जैसे कि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर या गणावच्छेदक आदि, अगर आपकी अनुमति हो तो मैं इन्हें पर्याप्त आहार दूँ। उसके इस प्रकार कहने पर यदि गुरु-जनादि कहें- आयुष्मन् श्रमण ! तुम अपनी ईच्छानुसार उन्हें यथापर्यास आहार दे दो। वह साधु जितना वे कहें, उतना आहार उन्हें दे । यदि वे कहें कि सारा आहार दे दो, तो सारा का सारा दे दे। सूत्र-३९१
यदि कोई भिक्षु भिक्षा में सरस स्वादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे नीरस तुच्छ आहार से ढंक कर छिपा देता है, ताकि आचार्य, उपाध्याय, यावत् गणावच्छेदक आदि मेरे प्रिय व श्रेष्ठ आहार को देखकर स्वयं न ले ले, मुझे इसमें से किसी को कुछ भी नहीं देना है । ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है । साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए । वह साधु उस आहार को लेकर आचार्य आदि के पास जाए और वहाँ जाते ही सबसे पहले झोली खोलकर पात्र को हाथ में ऊपर उठाकर एक-एक पदार्थ उन्हें बता दे । कोई भी पदार्थ जरा-भी न छिपाए । यदि कोई भिक्षु गृहस्थ के घर से प्राप्त भोजन को लेकर मार्ग में ही कहीं, सरस-सरस आहार को स्वयं खाकर शेष बचे तुच्छ एवं नीरस आहार को लाता है, तो ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का सेवन करता है । साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए। सूत्र - ३९२
साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईक्ष के पर्व का मध्य भाग है, पर्वसहित इक्षुखण्ड है, पेरे हुए ईख के छिलके हैं, छिला हुआ अग्रभाग है, ईख की बड़ी शाखाएं हैं, छोटी डालियाँ हैं, मूंग आदि की तोड़ी हुई फली तथा चौले की फलियाँ पकी हुई हैं, परन्तु इनके ग्रहण करने पर इनमें खाने योग्य भाग बहुत थोड़ा और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक है, इस प्रकार के अधिक फेंकने योग्य आहार को अकल्पनीय और अनैषणीय मानकर मिलने पर भी न ले।
साधु या साध्वी यदि यह जाने कि इस गूदेदार पके फल में बहुत गुठलियाँ हैं, या इस अनन्नास में बहुत काँटें हैं, इसे ग्रहण करने पर इस आहार में खाने योग्य भाग अल्प है, फेंकने योग्य भाग अधिक है, तो इस प्रकार के गूदेदार फल के प्राप्त होने पर उसे अकल्पनीय समझकर न ले।
भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए प्रवेश करे, तब यदि वह बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फलों के लिए आमंत्रण करे तो इस वचन सूनकर और उस पर विचार करके पहले ही साधु उससे कहे बहुत-से बीज-गुठली से युक्त फल लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है । यदि तुम मुझे देना चाहते हो तो इस फल का जितना गूदा है, उतना मुझे दे दो, बीज-गुठलियाँ नहीं । भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ अपने बर्तन में से उपर्युक्त फल लाकर देने लगे तो जब उसी गृहस्थ के हाथ या पात्र में वह हो तभी उसको अप्रासुक और अनैषणीय मानकर लेने से मना कर दे । इतने पर भी वह गृहस्थ हठात् साधु के पात्रमें डाल दे तो फिर न तो हाँ-हूँ कहे, न धिक्कार कहे और न ही अन्यथा कहे,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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