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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- ३८४
एक ही स्थान पर स्थिरवास करनेवाले या ग्रामानुग्राम विचरण करनेवाले साधु या साध्वी किसी ग्राम में यावत् राजधानी में भिक्षाचर्या के लिए जब गृहस्थों के यहाँ जाने लगे, तब यदि वे जान जाए कि इस गाँव यावत् राजधानी में किसी भिक्षु के पूर्व-परिचित या पश्चात्-परिचित गृहस्थ, गृहस्थपत्नी, उसके पुत्र-पुत्री, पुत्रवधू, दास-दासी, नौकरनौकरानियाँ आदि श्रद्धालुजन रहते हैं तो इस प्रकार के घरों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार-पानी के लिए जाए-आए नहीं
केवली भगवान कहते हैं यह कर्मों के आने का कारण है, क्योंकि समय से पूर्व अपने घर में साधु या साध्वी को आए देखकर वह उसके लिए आहार बनाने के सभी साधन जुटाएगा । अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों द्वारा पूर्वोपदिष्ट यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु, कारण या उपदेश है कि वह इस प्रकार के परिचित कुलों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार-पानी के लिए जाए-आए नहीं । बल्कि स्वजनादि या श्रद्धालु परिचित घरों को जानकर एकान्त स्थान में चला जाए, कोई आता-जाता और देखता न हो, ऐसे एकान्त में खड़ा हो जाए । ऐसे स्वजनादि सम्बद्ध ग्राम आदि में भिक्षा के समय प्रवेश करे और स्वजनादि से भिन्न अन्यान्य घरों से सामुदानिक रूप से एषणीय तथा वेषमात्र से प्राप्त निर्दोष आहार उपभोग करे।
यदि कदाचित् भिक्षा के समय प्रविष्ट साधु को देखकर वह गृहस्थ उसके लिए आधाकर्मिक आहार बनाने के साधन जुटाने लगे या आहार बनाने लगे, उसे देखकर भी वह साधु इस अभिप्राय से चूपचाप देखता रहे कि जब यह आहार लेकर आएगा, तभी उसे लेने से इन्कार कर दूंगा, यह माया का स्पर्श करना है। साधु ऐसा न करे। वह पहले से ही इस पर ध्यान दे और कहे- आयुष्मन् ! इस प्रकार का आधाकर्मिक आहार खाना या पीना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है । अतः मेरे लिए न तो इसके साधन एकत्रित करो और न इसे बनाओ। उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ आधाकर्मिक आहार बनाकर लाए और साधु को देने लगे तो वह साधु उस आहार को अप्रासुक एवं अनैषणीय जानकर मिलने पर भी न ले। सूत्र-३८५
गृहस्थ के घरमें साधु-साध्वी के प्रवेश करने पर उसे यह ज्ञात हो जाए कि वहाँ किसी अतिथि के लिए माँस या मत्स्य भूना जा रहा है, तथा तेल के पुए बनाए जा रहे हैं, इसे देखकर वह अतिशीघ्रता से पास में जाकर याचना न करे । रुग्ण साधु के लिए अत्यावश्यक हो तो किसी पथ्यानुकूल सात्विक आहार की याचना कर सकता है। सूत्र-३८६
गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए जाने पर वहाँ से भोजन लेकर जो साधु सुगन्धित आहार स्वयं खा लेता है और दुर्गन्धित आहार बाहर फेंक देता है, वह माया-स्थान का स्पर्श करता है । उसे ऐसा नहीं करना चाहिए । जैसा भी आहार प्राप्त हो, साधु उसका समभावपूर्वक उपभोग करे, उसमें से किंचित् भी फेंके नहीं। सूत्र - ३८७
गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट जो साधु-साध्वी वहाँ से यथाप्राप्त जल लेकर वर्ण-गन्ध-युक्त पानी को पी जाते हैं और कसैला पानी फेंक देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं । ऐसा नहीं करना चाहिए। जैसा भी जल प्राप्त हुआ हो, उसे समभाव से पी लेना चाहिए, उसमें से जरा-सा भी बाहर नहीं डालना चाहिए। सूत्र - ३८८
भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु-साध्वी उसके यहाँ से बहुत-सा नाना प्रकार का भोजन ले आए तब वहाँ जो साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ तथा अपरिहारिक साधु-साध्वी निकटवर्ती रहते हों, उन्हें पूछे बिना एवं निमंत्रित किये बिना जो साधु-साध्वी उस आहार को परठ देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं ।वह साधु उस
आहार को लेकर उन साधर्मिक, समनोज्ञ साधुओं के पास जाए । वहाँ जाकर सर्वप्रथम उस आहार को दिखाए और इस प्रकार कहे-आयुष्मन् श्रमणों ! यह चतुर्विध आहार हमारी आवश्यकता से बहुत अधिक है, अतः आप इसका उपभोग करें, और अन्यान्य भिक्षुओं को वितरित कर दें । इस प्रकार कहने पर कोई भिक्षु यों कहे कि- आयुष्मन्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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