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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक इनमें प्राणियों का व्युत्क्रमण नहीं होता, ये प्राणी शस्त्र-परिणत नहीं होते, न ये प्राणी विध्वस्त होते हैं । अतः उसे अप्रासुक और अनैषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी उसे ग्रहण न करे। सूत्र - ३८१
। गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ इक्षुखण्ड-है, अंककरेलु, निक्खा-रक, कसेरू, सिंघाड़ा एवं पूतिआलुक नामक वनस्पति है, अथवा अन्य इसी प्रकार की वनस्पति विशेष है, जो अपक्व तथा अशस्त्र-परिणत है, तो उसे अप्रासुक और अनैषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ नीलकमल आदि या कमल की नाल है, पद्म कन्दमूल है, या पद्मकन्द के ऊपर की लता है, पद्मकेसर है, या पद्मकन्द है तो इसी प्रकार का अन्य कन्द है, जो कच्चा है, शस्त्र-परिणत नहीं है तो उसे अप्रासुक व अनैषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। सूत्र - ३८२
साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ अग्रबीज वाली, मूलबीज वाली, स्कन्धबीज वाली तथा पर्वबीज वाली वनस्पति है एवं अग्रजात, मूलजात, स्कन्धजात तथा पर्वजात वनस्पति है, तथा कन्दली का गूदा कन्दली का स्तबक, नारियल का गूदा, खजूर का गूदा, ताड़ का गूदा तथा अन्य इसी प्रकार की कच्ची और अशस्त्र-परिणत वनस्पति है, उसे अप्रासुक और अनैषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
गृहस्थ के यहाँ भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईख है, छेद वाला कान ईख है तथा जिसका रंग बदल गया है, जिसकी छाल फट गई है, सियारों ने थोड़ा-सा खा भी लिया है ऐसा फल है तथा बेंत का अग्रभाग है, कदली का मध्य भाग है एवं इसी प्रकार की अन्य कोई वनस्पति है, जो कच्ची और अशस्त्र-परिणत है, तो उसे साधु अप्रासुक और अनैषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ लहसून है, लहसून का पत्ता, उसकी नाल, लहसून का कन्द या लहसून की बाहर की छाल, या अन्य प्रकार की वनस्पति है जो कच्ची और अशस्त्र-परिणत है, तो उसे अप्रासुक और अनैषणीय मानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे ।
साधु या साध्वी यदि यह जाने के वहाँ आस्थिक वृक्ष के फल, टैम्बरु के फल, टिम्ब का फल, श्रीपर्णी का फल, अथवा अन्य इसी प्रकार के फल, जो कि गड्ढे में दबा कर धूएं आदि से पकाए गए हों, कच्चे तथा शस्त्र-परिणत नहीं है, ऐसे फल को अप्रासुक और अनैषणीय समझकर मिलने पर भी नहीं लेना चाहिए।
साधु या साध्वी यदि यह जाने के वहाँ शाली धान आदि अन्न के कण हैं, कणों से मिश्रित छाणक है, कणों से मिश्रित कच्ची रोटी, चावल, चावलों का आटा, तिल, तिलकूट, तिलपपड़ी है, अथवा अन्य उसी प्रकार का पदार्थ है जो कि कच्चा और अशस्त्र-परिणत है, उसे अप्रासुक और अनैषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
यह (वनस्पतिकायिक आहार-गवेषणा) उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि आदि से सम्बन्धीत) समग्रता है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१ - उद्देशक-९ सूत्र - ३८३
यहाँ पूर्व में, पश्चिम में, दक्षिण में या उत्तर दिशा में कईं सद्गृहस्थ, उनकी गृहपत्नीयाँ, उनके पुत्र-पुत्री, उनकी पुत्रवधू, उनकी दास-दासी, नौकर-नौकरानियाँ होते हैं, वे बहुत श्रद्धावान् होते हैं और परस्पर मिलने पर इस प्रकार बातें करते हैं-ये पूज्य श्रमण भगवान शीलवान्, व्रतनिष्ठ, गुणवान्, संयमी, आस्रवों के निरोधक, ब्रह्मचारी एवं मैथुनकर्म से निवृत्त होते हैं । आधाकर्मिक अशन आदि खाना-पीना इन्हें कल्पनीय नहीं है । अतः हमने अपने लिए जो आहार बनाया है, वह सब हम इन श्रमणों को दे देंगे और हम बाद में अशनादि चतुर्विध आहार बना लेंगे । उनके इस वार्तालाप को सूनकर तथा जानकर साधु या साध्वी इस प्रकार के (दोषयुक्त) अशनादि आहार को अप्रासुक और अनैषणीय मानकर मिलने पर ग्रहण न करे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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