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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक है, यह हेतु है, यह कारण है और यही उपदेश है कि वह मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोल कर दिये जाने वाले अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक एवं अनैषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने कि यह अशनादि चतुर्विध आहार पृथ्वीकाय पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार का आहार अप्रासुक और अनैषणीय समझकर साधु-साध्वी ग्रहण न करे। वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि-अशनादि आहार अप्काय (सचित्त जल आदि) पर अथवा अग्निकाय पर रखा हुआ है, तो ऐसे आहार को अप्रासुक तथा अनैषणीय जानकर ग्रहण न करे। केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मों के उपादान का कारण है, क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु के उद्देश्य सेअग्नि जलाकर, हवा देकर, विशेष प्रज्वलित करके या प्रज्वलित आग में से ईन्धन नीकाल कर, आग पर रखे हुए बर्तन को उतारकर, आहार लाकर दे देगा, इसीलिए तीर्थंकर भगवान ने साधु-साध्वी के लिए पहले से बताया है, यही उनकी प्रतिज्ञा है, यही हेतु है यही कारण है और यही उपदेश है कि वे सचित्त-पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पर प्रतिष्ठित आहार को अप्रासुक और अनैषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे। सूत्र-३७३ गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि साधु को देने के लिए यह अत्यन्त उष्ण आहार असंयत गृहस्थ सूप से, पँखे से, ताड़पत्र, खजूर आदि के पत्ते, शाखा, शाखाखण्ड से, मोर के पंख से अथवा उससे बने हुए पंखे से, वस्त्र से, वस्त्र के पल्ले से, हाथ से या मुँह से, पँखे आदि से हवा करके ठंडा करके देने वाला है । वह पहले विचार करे और उक्त गृहस्थ से कहे-आयुष्मन् गृहस्थ! तुम इस अत्यन्त गर्म आहार को सूप, पँखे यावत् हवा करके ठंडा न करो। अगर तुम्हारी ईच्छा इस आहार को देने की हो तो, ऐसे ही दे दो । इस पर भी वह गृहस्थ न माने और उस अत्युष्ण आहार को यावत् ठण्डा करके देने लगे तो उस आहार को अप्रासुक और अनैषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। सूत्र - ३७४ गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यह जाने कि यह अशनादि चतुर्विध आहार वनस्पतिकाय पर रखा हुआ है तो उस प्रकार के वनस्पतिकाय प्रतिष्ठित आहार को अप्रासुक और अनैषणीय जानकर प्राप्त होने पर न ले । इसी प्रकार त्रसकाय से प्रतिष्ठित आहार हो तो उसे भी ग्रहण न करे। सूत्र-३७५ गृहस्थ के घर में पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि पानी के इन प्रकारों को जाने-जैसे कि-आटे के हाथ लगा हुआ पानी, तिल धोया हुआ पानी, चावल धोया हुआ पानी, अथवा अन्य किसी वस्तु का इसी प्रकार का तत्काल धोया हुआ पानी हो, जिसका स्वाद चलित-(परिवर्तित) न हुआ हो, जिसका रस अतिक्रान्त न हुआ (बदला न) हो, जिसके वर्ण आदि का परिणमन न हुआ हो, जो शस्त्र-परिणत न हुआ हो, ऐसे पानी को अप्रासुक और अनैषणीय जानकर मिलने पर भी साधु-साध्वी ग्रहण न करे। इसके विपरीत यदि वह यह जाने के यह बहुत देर का चावल आदि का धोया हुआ धोवन है, इसका स्वाद बदल गया है, रस का भी अतिक्रमण हो गया है, वर्ण आदि भी परिणत हो गए हैं और शस्त्र-परिणत भी हैं तो उस पानक को प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर साधु-साध्वी ग्रहण करे। गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी अगर जाने, कि तिलों का उदक; तुषोदक, यवोदक, उबले हुए चावलों का ओसामण, कांजी का बर्तन धोया हुआ जल, प्रासुक उष्णजल अथवा इसी प्रकार का अन्य-धोया हुआ पानी इत्यादि जल पहले देखकर ही साधु गृहस्थ से कहे-"आयुष्मन् गृहस्थ ! क्या मुझे इन जलों में से किसी जल को दोगे ?' साधु गृहस्थ से यदि कहे कि-"आयुष्मन् श्रमण ! जल पात्र में रखे हुए पानी को अपने पात्र से आप स्वयं उलीच कर या उलटकर ले लीजिए। गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साधु उस पानी को स्वयं ले ले अथवा गृहस्थ स्वयं देता हो तो उसे प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 62
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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