________________
आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक उत्पन्न नमक या समुद्र के किनारे खार और पानी के संयोग से उत्पन्न उद्भिज्ज लवण के सचित्त शिला, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, घुन लगे लक्कड़ पर या जीवाधिष्ठित पदार्थ पर अण्डे, प्राण, हरियाली, बीज या मकड़ी के जाले सहित शिला पर टुकड़े कर चूका है, कर रहा है या करेगा, या पीस चूका है, पीस रहा है या पीसेगा तो साधु ऐसे सचित्त या सामुद्रिक लवण को अप्रासुक-अनैषणीय समझकर ग्रहण न करे। सूत्र-३७०
गृहस्थ के घर आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि यह जान जाए कि अशनादि आहार अग्नि पर रखा हुआ है, तो उस आहार को अप्रासुक-अनैषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे । केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मों के आने का मार्ग है, क्योंकि असंयमी गृहस्थ साधु के उद्देश्य से अग्नि पर रखे हुए बर्तन में से आहार को नीकालता हुआ, उफनते हुए दूध आदि को जल आदि के छींटे देकर शान्त करता हुआ, अथवा उसे हाथ आदि से एक बार या बार-बार हिलाता हुआ, आग पर से उतारता हुआ या बर्तन को टेढ़ा करता हुआ वह अग्निकायिक जीवों की हिंसा करेगा । अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भगवान ने पहले से ही प्रतिपादित किया है कि उसकी यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यह उपदेश है कि वह (साधु या साध्वी) अग्नि पर रखे हुए आहार को अप्रासुक और अनैषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे। यह (आहार-ग्रहण-विवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है।
अध्ययन-१-उद्देशक-७ सूत्र-३७१
गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ के यहाँ भींत पर, स्तम्भ पर, मंच पर, घर के अन्य ऊपरी भाग पर, महल पर, प्रासाद आदि की छत पर या अन्य उस प्रकार के किसी ऊंचे स्थान पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के ऊंचे स्थान से उतारकर दिया जाता अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक एवं अनैषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे।।
केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मबन्ध का उपादान-कारण है; क्योंकि असंयत गृहस्थ भिक्षु को आहार देने के उद्देश्य से चौकी, पट्टा, सीढ़ी या ऊखल आदि को लाकर ऊंचा करके उस पर चढ़ेगा। ऊपर चढ़ता हुआ वह गृहस्थ फिसल सकता है या गिर सकता है । उसका हाथ, पैर, भुजा, छाती, पेट, सिर या शरीर का कोई अंग टूट जाएगा, अथवा उसके गिरने से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन हो जाएगा, वे जीव नीच दब जाएंगे, परस्पर चिपककर कुचल जाएंगे, परस्पर टकरा जाएंगे, उन्हें पीड़ाजनक स्पर्श होगा, उन्हें संताप होगा, वे हैरान हो जाएंगे, वे त्रस्त हो जाएंगे, या एक स्थान से दूसरे स्थान पर उनका संक्रमण हो जाएगा, अथवा वे जीवन से भी रहित हो जाएंगे । अतः इस प्रकार के मालाहृत अशनादि चतुर्विध आहार के प्राप्त होने पर भी साधु उसे ग्रहण न करे।
__ आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि असंयत गृहस्थ साधु के लिए अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी आदि बड़ी कोठी में से या ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े भूमिगृह में से नीचा होकर, कुबड़ा होकर या टेढ़ा होकर कर देना चाहता है, तो ऐसे अशनादि चतुर्विध आहार को मालाहृत जान कर प्राप्त होने पर भी वह साधु या साध्वी ग्रहण न करे। सूत्र - ३७२
साधु या साध्वी यह जाने कि वहाँ अशनादि आहार मिट्टी से लीपे हुए मुख वाले बर्तन में रखा हुआ है तो इस प्रकार का आहार प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
केवली भगवान कहते हैं-यह कर्म आने का कारण है । क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु को आहार देने के लिए मिट्टी से लीपे आहार के बर्तन का मुँह खोलता हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करेगा तथा अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय तक का समारम्भ करेगा। शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लिप्त करके वह पश्चात्कर्म करेगा। इसीलिए तीर्थंकर भगवान ने पहले से ही प्रतिपादित कर दिया है कि साधु-साध्वी की यह प्रतिज्ञा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 61