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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक मरम्मत की हुई दीवार आदि को, दीवारों की संधि को, तथा पानी रखने के स्थान को, बार-बार बाहें उठाकर अंगुलियों से बार-बार उनकी ओर संकेत करके, शरीर को ऊंचा उठाकर या नीचे झुकाकर, न तो स्वयं देखें और न दूसरे को दिखाए । तथा गृहस्थ को अंगुलि से बार-बार निर्देश करके याचना न करे और न ही अंगुलियों से भय दिखाकर गृहपति से याचना करे। इसी प्रकार अंगुलियों से शरीर को बार-बार खुजलाकर या गृहस्थ की प्रशंसा या स्तुति करके आहारादि की याचना न करे। गृहस्थ को कठोर वचन न कहे। सूत्र-३६७
गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी किसी व्यक्ति को भोजन करते हुए देखे, जैसे कि - गृहस्वामी, उसकी पत्नी, उसकी पुत्री या पुत्र, उसकी पुत्रवधू या गृहपति के दास-दासी या नौकर-नौकरानियों में से किसी को, पहले अपने मन में विचार करके कहे-आयुष्मन् गृहस्थ इसमें से कुछ भोजन मुझे दोगे?
उस भिक्षु के ऐसा कहने पर यदि वह गृहस्थ अपने हाथ को, मिट्टी के बर्तन को, दर्वी को या कांसे आदि के बर्तन को ठंडे जल से या ठंडे हुए उष्णजल से एक बार धोए या बार-बार रगड़कर धोने लगे तो वह भिक्षु पहले उसे भली-भाँति देखकर कहे- आयुष्मन गहस्थ ! तुम इस प्रकार हाथ, पात्र, कुडछी या बर्तन को सचित्त पानी से म धोओ । यदि मुझे भोजन देना चाहती हो तो ऐसे ही दे दो।
साधु के इस प्रकार कहने पर यदि वह शीतल या अल्प उष्णजल से हाथ आदि को एक बार या बार-बार धोकर उन्हीं से अशनादि आहार लाकर देने लगे तो उस प्रकार के पुरः कर्मरत हाथ आदि से लाए गए अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
यदि साधु यह जाने कि दाता के हाथ, पात्र आदि भिक्षा देने के लिए नहीं धोए हैं, किन्तु पहले से ही गीले हैं; उस प्रकार के सचित्त जल से गीले हाथ, पात्र, कुड़छी आदि से लाकर दिया गया आहार भी अप्रासुक-अनेष-णीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे । यदि यह जाने कि हाथ आदि पहले से गीले तो नहीं हैं, किन्तु सस्निग्ध हैं, तो उस प्रकार लाकर दिया गया आहार...भी ग्रहण न करे।
यदि यह जाने कि हाथ आदि जल से आर्द्र या सस्निग्ध तो नहीं हैं, किन्तु क्रमशः सचित्त मिट्टी, क्षार, हड़ताल, हिंगलू, मेनसिल, अंजन, लवण, मेरू, पीली मिट्टी, खड़िया मिट्टी, सौराष्ट्रिका, बिना छाना आटा, आटे का चोकर, पीलुपर्णिका के गीले पत्तों का चूर्ण आदि में से किसी से भी हाथ आद संसृष्ट हैं तो उस प्रकार के हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार...भी ग्रहण न करे । यदि वह यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल से आर्द्र, सस्निग्ध या सचित्त मिट्टी आदि से असंसृष्ट तो नहीं हैं, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से हाथ आदि संसृष्ट हैं तो ऐसे हाथों या बर्तन आदि से दिया गया अशनादि आहार प्रासुक एवं एषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर सकता है(अथवा) यदि वह भिक्षु यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल, मिट्टी आदि से संसृष्ट नहीं हैं, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से संसृष्ट हैं, तो ऐसे हाथों या बर्तन आदि से दिया गया आहार प्रासुक एवं एषणीय समझ-कर प्राप्त होने पर ग्रहण करे। सूत्र-३६८
गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि शालि-धान, जौ, गेहूँ आदि में सचित्तरज बहुत है, गेहूँ आदि अग्नि में मूंजे हुए हैं, किन्तु वे अर्धपक्व हैं, गेहूँ आदि के आटे में तथा कुटे हुए धान में भी अखण्ड दाने हैं, कण-सहित चावल के लम्बे दाने सिर्फ एक बार भुने हुए या कुटे हुए हैं, अतः असंयमी गृहस्थ भिक्षु के उद्देश्य से सचित्त शिला पर, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, घुन लगे हुए लक्कड पर, या दीमक लगे हुए जीवा-धिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे सहित, प्राण-सहित या मकड़ी आदि के जालों सहित शिला पर उन्हें कूट चूका है, कूट रहा है या कूटेगा; उसके पश्चात् वह उन अनाज के दानों को लेकर उपन चूका है, उपन रहा है या उपनेगा; इस प्रकार के चावल आदि अन्नों को अप्रासुक और अनैषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे। सूत्र - ३६९
गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि यह जाने कि असंयमी गृहस्थ किसी विशिष्ट खान में
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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