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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पहली ही दृष्टि में गृहस्थ उस मुनि को वहाँ खड़ा देखकर उसके लिए आरम्भ-समारम्भ करके अशनादि चतुर्विध आहार बनाकर, उसे लाकर देगा। अतः भिक्षुओं के लिए पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह उपदेश है कि वह भिक्षु उस गृहस्थ और शाक्यादि भिक्षाचरों की दृष्टि में आए, इस तरह सामने और उनके निर्गमन द्वार पर खड़ा न हो। वह (उन श्रमणादि को उपस्थित) जानकर एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई आता-जाता न हो और देखता न हो, इस प्रकार से खड़ा रहे । उस भिक्षु को उस अनापात और असंलोक स्थान में खड़ा देखकर वह गृहस्थ अशनादि आहार लाकर दे, साथ ही वह यों कहे आयुष्मन् श्रमण ! यह अशनादि चतुर्विध आहार मैं आ सब के लिए दे रहा हूँ। आप रुचि के अनुसार इस आहार का उपभोग करें और परस्पर बाँट लें। इस पर यदि वह साधु उस आहार को चूपचाप लेकर यह विचार करता है कि यह आहार मुझे दिया है, इसलिए मेरे ही लिए है, तो वह माया-स्थान का सेवन करता है । अतः उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। वह साधु उस आहार को लेकर वहाँ (उन शाक्यादि श्रमण आदि के पास) जाए और उन्हें वह आहार दिखाए, और यह कहे- "हे आयुष्मन् ! श्रमणादि ! यह अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ ने हम सबके लिए दिया है । अतः आप सब इसका उपभोग करें और परस्पर विभाजन कर लें। ऐसा कहने पर यदि कोई शाक्यादि भिक्षु उस साधु से कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! आप ही इसे हम सबको बाँट दें । उस आहार का विभाजन करता हुआ वह साधु अपने लिए जल्दी-जल्दी अच्छा-अच्छा प्रचुर मात्रा में वर्णादिगुणों से युक्त सरस भाग, स्वादिष्ट, मनोज्ञ, स्निग्ध, आहार और उनके लिए रूखा-सूखा आहार न रखे, अपितु उस आहार में अमूर्च्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष एवं अनासक्त होकर सबके लिए समान विभाग करे। यदि सम-विभाग करते हुए उस साधु को कोई शाक्यादि भिक्षु यों कहे कि-"आयुष्मन् श्रमण ! आप विभाग मत करें। हम सब एकत्रित होकर यह आहार खा-पी लेंगे।" (ऐसी विशेष परिस्थिति में) वह उनके साथ आहार करता हुआ अपने लिए प्रचुर मात्रा में सुन्दर, सरस आदि आहार और दूसरों के लिए रूखा-सूखा; (ऐसी स्वार्थी-नीति न रखे); अपितु उस आहार में वह अमूर्च्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष और अनासक्त होकर बिलकुल सम मात्रा में ही खाए-पिए। सूत्र-३६४ वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने कि वहाँ शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, ग्रामपिण्डोलक या अतिथि आदि पहले से प्रविष्ट हैं, तो यह देख वह उन्हें लाँघकर उस गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे और न ही दाता से आहारादि की याचना करे परन्तु एकांत स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई न आए-जाए तथा न देखे, इस प्रकार से खड़ा रहे । जब यह जान ले कि गृहस्थ ने श्रमणादि को आहार देने से इन्कार कर दिया है, अथवा उन्हें दे दिया है और वे उस घर से निपटा दिये गए हैं; तब संयमी साधु स्वयं उस गृहस्थ के घर में प्रवेश करे, अथवा आहारादि की याचना करे यही उस भिक्षु अथवा भिक्षुणी के लिए ज्ञान आदि के आचार की समग्रता-सम्पूर्णता है। अध्ययन-१- उद्देशक-६ सूत्र - ३६५ वह भिक्षु या भिक्षुणी आहार के निमित्त जा रहे हों, उस समय मार्ग में यह जाने कि रसान्वेषी बहुत-से प्राणी आहार के लिए एकत्रित होकर (किसी पदार्थ पर) टूट पड़े हैं, जैसे कि-कुक्कुट जाति के जीव, शूकर जाति के जीव, अथवा अग्र-पिण्ड पर कौए झुण्ड के झुण्ड टूट पड़े हैं। इन जीवों को मार्ग में आगे देखकर संयत साधु या साध्वी अन्य मार्ग के रहते, सीधे उनके सम्मुख होकर न जाएं। सूत्र - ३६६ आहारादि के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी उसके घर के दरवाजे की चौखट पकड़कर खड़े न हों, न उस गृहस्थ के गंदा पानी फेंकने के स्थान या उनके हाथ-मुँह धोने या पीने के पानी बहाये जाने की जगह खड़े न हों और न ही स्नानगृह, पेशाबघर या शौचालय के सामने अथवा निर्गमन-प्रवेश द्वार पर खड़े हों । उस घर के झरोखे आदि को, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 59
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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