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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक संखड़ि में संखड़ि के संकल्प से जाने वाले भिक्षु को आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, प्रामित्य, बलात् छीना हुआ, दूसरे के स्वामित्व का पदार्थ उसकी अनुमति के बिना लिया हुआ या सम्मुख लाकर दिया हुआ आहार सेवन करना होगा। क्योंकि कोई भावुक गृहस्थ भिक्षु के संखड़ि में पधारने की सम्भावना से छोटे द्वार को बड़ा बनाएगा, बड़े द्वार को छोटा बनाएगा, विषम वासस्थान को सम बनाएग तथा सम वासस्थान को विषम बनाएगा। इसी प्रकार अधिक वातयुक्त वासस्थान को निर्वात बनाएगा या निर्वात वातस्थान को अधिक वात युक्त बनाएगा । वह भिक्षु के निवास के लिए उपाश्रय के अन्दर और बाहर हरियाली को काटेगा, उसे जड़ से उखाड़ कर वहाँ संस्तारक बिछाएगा । इस प्रकार संखड़ि में जाने को भगवान ने मिश्रजात दोष बताया है। इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ इस प्रकार नामकरण विवाह आदि के उपलक्ष्य में होने वाली पूर्व-संखड़ि अथवा मृतक के पीछे की जाने वाली पश्चात्-संखड़ि को (अनेक दोषयुक्त) संखड़ि जानकर जाने का मन में संकल्प न करे। यह उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है कि वह समस्त पदार्थों में संयत या समित व ज्ञानादि सहित होकर सदा प्रयत्नशील रहे । ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१- उद्देशक-३ सूत्र-३४८ कदाचित् भिक्षु अथवा अकेला साधु किसी संखड़ि में पहुँचेगा तो वहाँ अधिक सरस आहार एवं पेय खानेपीने से उसे दस्त लग सकता है, या वमन हो सकता है अथवा वह आहार भलीभाँति पचेगा नहीं; कोई भयंकर दुःख या रोगांतक पैदा हो सकता है। इसलिए केवली भगवान न कहा- यह (संखड़िगमन) कर्मों का उपादान कारण है। सूत्र-३४९ यहाँ भिक्षु गृहस्थों-गृहस्थपत्नीयों अथवा परिव्राजक-परिव्राजिकाओं के साथ एकचित्त व एकत्रित होकर नशीला पेय पीकर बाहर नीकलकर उपाश्रय ढूँढ़ने लगेगा, जब वह नहीं मिलेगा, तब उसी को उपाश्रय समझकर गृहस्थ स्त्री-पुरुषों व परिव्राजक-परिव्राजिकाओं के साथ ही ठहर जाएगा। उनके साथ धुलमिल जाएगा। वे गृहस्थ - गृहस्थपत्नीयाँ आदि मत्त एवं अन्यमनस्क होकर अपने आपको भूल जाएंगे, साधु अपने को भूल जाएगा। अपने को भूलकर वह स्त्री शरीर पर या नपुंसक पर आसक्त हो जाएगा। अथवा स्त्रियाँ या नपुंसक उस भिक्षु के पास आकर कहेंगे-आयुष्मन् श्रमण ! किसी बगीचे या उपाश्रय में रात को या विकाल में एकान्त में मिलें । फिर कहेंगे-ग्राम के निकट किसी गुप्त, प्रच्छन्न, एकान्तस्थान में हम मैथुन-सेवन करेंगे । उस प्रार्थना का कोई एकाकी अनभिज्ञ साधु स्वीकार भी कर सकता है। यह (साधु के लिए सर्वथा) अकरणीय है यह जानकर (संखड़ि में न जाए) । संखड़ि में जाना कर्मों के आस्रव का कारण है, अथवा दोषों का आयतन है। इसमें जाने से कर्मों का संचय बढ़ता जाता है; इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ संखड़ि को संयम खण्डित करने वाली जानकर उसमें जान का विचार भी न करे। सूत्र-३५० वह भिक्षु या भिक्षुणी पूर्व-संखड़ि या पश्चात्-संखड़ि में से किसी एक के विषय में सूनकर मन में विचार करके स्वयं बहुत उत्सुक मन से जल्दी-जल्दी जाता है। क्योंकि वहाँ निश्चित ही संखड़ि है । वह भिक्षु उस संखड़ि वाले ग्राम में संखड़ि से रहित दूसरे-दूसरे घरों से एषणीय तथा वेश से लब्ध उत्पादनादि दोषरहित भिक्षा से प्राप्त आहार को ग्रहण करके वहीं उसका उपभोग नहीं कर सकेगा । क्योंकि वह संखड़ि के भोजन-पानी के लिए लालायित है । वह भिक्षु मातृस्थान का स्पर्श करता है। अतः साधु ऐसा कार्य न करे। वह भिक्षु उस संखड़ि वाले ग्राम में अवसर देखकर प्रवेश करे, संखड़ि वाले घर के सिवाय, दूसरे-दूसरे घरों से सामुदानिक भिक्षा से प्राप्त एषणीय तथा केवल वेष से प्राप्त-धात्रीपिण्डादि दोषरहित पिण्डपात को ग्रहण करके उसका सेवन कर ले। मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 55
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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