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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक में यह जाने कि यह आहार अष्टमी पौषधव्रत के उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा अर्द्धमासिक, मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक और षाण्मासिक उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा ऋतुओं, ऋतुसन्धियों एवं ऋतुपरिवर्तनों के उत्सवों के उपलक्ष्य में (बना है, उसे) बहुत-से श्रमण, माहन, अतिथि, दरिद्र एवं भिखारियों को एक बर्तन से परोसते हुए देखकर, दो बर्तनों से, या तीन बर्तनों से एवं चार बर्तनों से परोसते हुए देखकर तथा संकड़े मुँह वाली कुम्भी और बाँस की टोकरी में से एवं संचित किए हुए गोरस आदि पदार्थों को परोसते हुए देख-कर, जो कि पुरुषान्तरकृत नहीं है, यावत् आसेवित नहीं है, तो ऐसे आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। और यदि ऐसा जाने कि यह आहार पुरुषान्तरकृत् यावत् आसेवित है तो ऐसे आहार को प्रासुक और एषणीय समझकर मिलने पर ग्रहण कर ले। सूत्र - ३४५ वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट होने पर जिन कुलों को जाने वे इस प्रकार हैं-उग्रकुल, भोगकुल, राज्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापित-कुल, बढ़ईकुल, ग्रामरक्षककुल या तन्तुवायकुल, ये और इसी प्रकार के और भी कुल, जो अनिन्दित और अगर्हित हों, उन कुलों से प्रासुक और एषणीय अशनादि चतुर्विध आहार मिलने पर ग्रहण करे । सूत्र-३४६ वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय वह जाने कि यहाँ मेला, पितृपिण्ड के निमित्त भोज तथा इन्द्र-महोत्सव, स्कन्ध, रुद्र, मुकुन्द, भूत, यक्ष, नाग-महोत्सव तथा स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, कूप, तालाब, हृद, नदी, सरोवर, सागर या आकार सम्बन्धी महोत्सव एवं अन्य इसी प्रकार के विभिन्न प्रकार के महोत्सव हो रहे हैं, अशनादि चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचकों को एक बर्तन में से, दो, तीन, या चार बर्तनों में से परोसा जा रहा है तथा घी, दूध, दही, तैल, गुड़ आदि का संचय भी संकड़े मुँह वाली कुप्पी में से तथा बाँस की टोकरी या पिटारी से परोसा जा रहा है । इस प्रकार का आहार पुरुषान्तरकृत, घर से बाहर नीकाला हुआ, दाता द्वारा अधिकृत, परिभुक्त या आसेवित नहीं है तो ऐसे आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। यदि वह यह जाने कि जिनको (जो आहार) देना था, दिया जा चूका है, अब वहाँ, गृहस्थ भोजन कर रहे हैं, ऐसा देखकर (आहार के लिए वहाँ जाए), उस गृहपति की पत्नी, बहन, पुत्र, पुत्री या पुत्रवधू, धायमाता, दास या दासी अथवा नौकर या नौकरानी को पहले से ही (भोजन करती हुई) देखे, (तब) पूछे- आयुष्मती! क्या मुझे इस भोजन में से कुछ दोगी? ऐसा कहने पर वह स्वयं अशनादि आहार लाकर साधु को दे अथवा वह गृहस्थ स्वयं दे तो उस आहार को प्रासुक एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे। सूत्र - ३४७ वह भिक्षु या भिक्षुणी अर्ध योजन की सीमा से पर संखड़ि हो रही है, यह जानकर संखड़ि में निष्पन्न आहार लेने के निमित्त जाने का विचार न करे । यदि भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि पूर्व दिशा में संखड़ि हो रही है, तो वह उसके प्रति अनादर भाव रखते हुए पश्चिम दिशा को चला जाए । यदि पश्चिम दिशा में संखड़ि जाने तो उसके प्रति अनादर भाव से पूर्व दिशा में चला जाए इसी प्रकार दक्षिण दिशा में संखड़ि जाने तो उत्तर दिशा में चला जाए और उत्तर दिशा में संखड़ि होती जाने तो उसके प्रति अनादर बताता हुआ दक्षिण दिशा में चला जाए। संखड़ि जहाँ भी हो, जैसे कि गाँव में हो, नगर में हो, खेड़े में हो, कुनगर में हो, मडम्ब में हो, पट्टन में हो, द्रोणमुख में हो, आकर में हो, आश्रम में हो, सन्निवेश में हो, यावत् राजधानी में हो, इनमें से कहीं भी संखड़ि जाने तो संखड़ि के निमित्त मन में संकल्प लेकर न जाए। केवलज्ञानी भगवान कहते हैं यह कर्मबन्धन का स्थान है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 54
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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