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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक वह भिक्षु या भिक्षुणी बाहर विचारभूमि या विहारभूमि से लौटते या वहाँ प्रवेश करते हुए अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी गृहस्थ के साथ तथा पारिहारिक, अपारिहारिक साधु के साथ न लौटे, न प्रवेश करे। एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा उत्तम साधु पार्श्वस्थ आदि साधु के साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे। सूत्र- ३३९ गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी याचक को तथैव उत्तम साधु पार्श्वस्थादि शिथिलाचारी साधु को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तो स्वयं दे और न किसी से दिलाए। सूत्र - ३४० गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लिया हुआ है तथा सामने लाया हुआ आहार दे रहा है, तो उस प्रकार का, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य रूप आहार दाता से भिन्न पुरुष ने बनाया हो अथवा दाता ने बनवाया हो, घर से बाहर नीकाला गया हो, या न नीकाला गया हो, उस दाता ने स्वीकार किया हो या न किया हो, उसी दाता ने उस आहार में से बहुत-सा खाया हो या न खाया हो; अथवा थोड़ा-सा सेवन किया हो, या न किया हो; इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेष-णिक समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। इसी प्रकार बहुत से साधर्मिक साधुओं के उद्देश्य से, एक साधर्मिणी साध्वी के उद्देश्य से तथा बहुत सी साधर्मिणी साध्वीओं के उद्देश्य से बनाया हुए आहार ग्रहण न करें; यों क्रमशः चार आलापक इसी भाँति कहने चाहिए सूत्र - ३४१ वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह अशनादि आहार बहुत से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, कृपणों, याचकों को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से बनाया हुआ है । वह आसेवन किया किया गया हो या न किया गया हो, उस आहार को अप्रासुक अनेषणीय समझकर मिलने पर ग्रहण न करे। सूत्र-३४२ वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, दरिद्रों और याचकों के उद्देश्य से प्राणादि आदि जीवों का समारम्भ करके यावत् लाकर दे रहा है, उस प्रकार के आहार को जो स्वयं दाता द्वारा कृत हो, बाहर नीकाला हुआ न हो, दाता द्वारा अधिकृत न हो, दाता द्वारा उपभुक्त न हो, अनासेवित हो, उसे अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे । यदि वह इस प्रकार जाने कि वह आहार दूसरे पुरुष द्वारा कृत है, घर से बाहर नीकाला गया है, अपने द्वारा अधिकृत है, दाता द्वारा उपभुक्त तथा आसेवित है तो ऐसा आहार को प्रासुक और एषणीय समझकर मिलने पर वह ग्रहण कर ले। सूत्र-३४३ गृहस्थ घरमें आहार-प्राप्ति की अपेक्षा से प्रवेश करने के ईच्छुक साधु साध्वी ऐसे कुलों को जान लें कि इन कुलों में नित्यपिण्ड दिया जाता है, नित्य अग्रपिण्ड दिया जाता है, प्रतिदिन भाग या उपार्द्ध भाग दिया जाता है। इस प्रकार के कुल, जो नित्य दान देते हैं, जिनमें प्रतिदिन भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, ऐसे कुलों में आहारपानी के लिए साधु-साध्वी प्रवेश एवं निर्गमन न करें। यह उस भिक्षु या भिक्षुणी के लिए समग्रता है, कि वह समस्त पदार्थों में संयत या पंचसमितियों से युक्त, ज्ञानादि-सहित अथवा स्वहित परायण होकर सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१- उद्देशक-२ सूत्र-३४४ वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार-प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशन आदि आहार के विषय मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 53
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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