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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१-पिंडेषणा उद्देशक-१ सूत्र-३३५ कोई भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा में आहार-प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होकर यह जाने कि यह अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य रसज आदि प्राणियों से, फफूंदी से, गेहूँ आदि के बीजों से, हरे अंकुर आदि से संसक्त है, मिश्रित है, सचित्त जल से गीला है तथा सचित्त मिट्टी से सना हुआ है; यदि इस प्रकार का अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य दाता के हाथ में हो, पर (दाता) के पात्र में हो तो उसे अप्रासुक और अनेषणीय मानकर, प्राप्त होने पर ग्रहण न करे। कदाचित् वैसा आहार ग्रहण कर लिया हो तो वह उस आहार को लेकर एकान्त में चला जाए या उद्यान या उपाश्रय में ही जहाँ प्राणियों के अंडे न हों, जीव-जन्तु न हों, बीज न हों, हरियाली न हो, ओस के कण न हों, सचित्त जल न हो तथा चींटियाँ, लीलन-फूलन, गीली मिट्टी या दलदल, काई या मकड़ी के जाले एवं दीमकों के घर आदि न हों, वहाँ उस संसक्त आहार से उन आगन्तुक जीवों को पृथक्-पृथक् करके उस मिश्रित आहार को शोध-शोधकर फिर यतनापूर्वक खा ले या पी ले। यदि वह उस आहार को खाने-पीने में असमर्थ हो तो उसे लेकर एकान्त स्थान में चला जाए । वहाँ जाकर दग्ध स्थण्डिलभूमि पर, हड्डियों के ढेर पर, लोह के कूड़े के ढेर पर, तुष के ढेर पर, सूखे गोबर के ढेर पर या इसी प्रकार के अन्य निर्दोष एवं प्रासुक स्थण्डिल का भलीभाँति निरीक्षण करके, उसका अच्छी तरह प्रमार्जन करके, यतनापूर्वक उस आहार को वहाँ परिष्ठापित कर दे। सूत्र- ३३६ गृहस्थ के घर में भिक्षा प्राप्त होने की आशा से प्रविष्ट हुआ भिक्षु या भिक्षुणी यदि इन औषधियों को जाने कि वे अखण्डित हैं, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक टुकड़े नहीं हुए हो, जिनका तिरछा छेदन नहीं हुआ है, जीव रहित नहीं है, अभी अधपकी फली है, जो अभी सचित्त या अभग्न है या अग्नि में भुंजी हुई नहीं है, तो उन्हें देखकर उनको अप्रासुक एवं अनेषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। सूत्र-३३७ गृहस्थ के घर में भिक्षा लेने के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसी औषधियों को जाने कि वे अखण्डित नहीं है, यावत् वे जीव रहित हैं, कच्ची फली अचित्त हो गई है, भग्न हैं या अग्नि में भुंजी हुई हैं, तो उन्हें देखकर, उन्हें प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होती हों तो ग्रहण कर ले। ___ गृहस्थ के घर भिक्षा निमित्त गया हुआ भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जान ले कि शाली, धान, जौ, गेहूँ आदि में सचित्त रज बहुत है, गेहूँ आदि अग्नि में मूंजे हुए - अर्धपक्व हैं । गेहूँ आदि के आटे में तथा धान-कूटे चूर्ण में भी अखण्ड दाने हैं, कणसहित चावल के लम्बे दाने सिर्फ एक बार भूने हुए हैं या कूटे हुए हैं, तो उन्हें अप्रासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। अगर...वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने की शाली, धान, जौ, गेहूँ आदि रज वाले नहीं हैं, आग में भुंजे हुए गेहूँ आदि तथा गेहूँ आदि का आटा, कुटा हुआ धान आदि अखण्ड दानों से सहित है, कण सहित चावल के लम्बे दाने, ये सब एक, दो या तीन बार आग में भुने हैं तो उन्हें प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले। सूत्र-३३८ गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने के ईच्छुक भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा पिण्डदोषों का परिहार करने वाला साधु अपारिहारिक साधु के साथ भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे, और न वहाँ से नीकले। मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 52
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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