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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- २७६, २७७
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद-शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं त्रसकाय- इन्हें सब प्रकार से जानकर। ये अस्तित्ववान् है यह देखकर ये चेतनावान है। यह जानकर उनके स्वरूप को भलीभाँति अवगत करके वे उनके आरम्भ का परित्याग करके विहार करते थे। सूत्र - २७८
स्थावर जीव त्रस के रूपमें उत्पन्न हो जाते हैं और त्रस जीव स्थावर के रूपमें उत्पन्न हो जाते हैं अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं । अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक्-पृथक् रूप से संसार में स्थित हैं। सूत्र- २७९
भगवान ने यह भलीभाँति जान-मान लिया था कि द्रव्य-भाव-उपधि से युक्त अज्ञानी जीव अवश्य ही क्लेश का अनुभव करता है। अतः कर्मबन्धन सर्वांग रूप से जानकर कर्म के उपादानरूप पाप का प्रत्याख्यान कर दिया था सूत्र - २८०
ज्ञानी और मेधावी भगवान ने दो प्रकार के कर्मों को भलीभाँति जानकर तथा आदान स्रोत, अतिपात स्रोत और योग को सब प्रकार से समझकर दूसरों से विलक्षण (निर्दोष) क्रिया का प्रतिपादन किया है। सूत्र- २८१
भगवान ने स्वयं पाप-दोष रहित निर्दोष अनाकुट्टि का आश्रय लेकर दूसरों को हिंसा न करने की प्रेरणा दी)। जिन्हें स्त्रियाँ परिज्ञात हैं, उन भगवान महावीर ने देख लिया था कि कामभोग समस्त पापकर्मों के उपादान कारण हैं सूत्र- २८२
भगवान ने देखा कि आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार ग्रहण सब तरह से कर्मबन्ध का कारण है, इसलिए उन्होंने आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन नहीं किया। वे प्रासुक आहार ग्रहण करते थे। सूत्र - २८३
दूसरे के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे, दूसरे के पात्र में भी भोजन नहीं करते थे। वे अपमान की परवाह न करके किसी की शरण लिए बिना पाकशाला में भिक्षा के लिए जाते थे। सूत्र - २८४
__ भगवान अशन-पान की मात्रा को जानते थे, वे रसों में आसक्त नहीं थे, वे (भोजन-सम्बन्धी) प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे, मुनिन्द्र महावीर आँखमें रजकण आदि पड़ जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते थे और न शरीर को खुजलाते थे। सूत्र- २८५
भगवान चलते हुए न तिरछे और न पीछे देखते थे, वे मौन चलते थे, किसी के पूछने पर बोलते नहीं थे। यतनापूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे। सूत्र - २८६
भगवान उस वस्त्र का भी व्युत्सर्ग कर चूके थे । अतः शिशिर ऋतु में वे दोनों बाँहें फैलाकर चलते थे, उन्हें कन्धों पर रखकर खड़े नहीं होते थे। सूत्र - २८७
ज्ञानवान महामाहन महावीर ने इस विधि के अनुरूप आचरण किया । उपदेश दिया । अतः मुमुक्षुजन इसका अनुमोदन करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-९ - उद्देशक-२ सूत्र - २८८
'भन्ते ! चर्या के साथ-साथ आपने कुछ आसन और वासस्थान बताए थे, अतः मुझे आप उन शयनासन को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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