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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक वाले काष्ठ-स्तम्भ या पट्टे का सहारा न लेकर घुन आदि रहित व निश्छिद्र काष्ठ-स्तम्भ या पट्टे का अन्वेषण करे। सूत्र-२५७
जिससे वज्रवत् कर्म उत्पन्न हो, ऐसी वस्तु का सहारा न ले । उससे या दुर्ध्यान से अपने आपको हटा ले और उपस्थित सभी दुःखस्पर्शों को सहन करे। सूत्र - २५८
यह अनशन विशिष्टतर है, पार करने योग्य है । जो विधि से अनुपालन करता है, वह सारा शरीर अकड़ जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता। सूत्र - २५९
यह उत्तम धर्म है । यह पूर्व स्थानद्वय से प्रकृष्टतर ग्रह वाला है । साधक स्थण्डिलस्थान का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ स्थिर होकर रहे। सूत्र - २६०
अचित्त को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित कर दे । शरीर का सब प्रकार से व्युत्सर्ग कर दे । परीषह उपस्थित होने पर ऐसी भावना करे- यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब परीषह (जनित दुःख मुझे कैसे होंगे?) सूत्र - २६१
जब तक जीवन है, तब तक ही ये परीषह और उपसर्ग हैं, यह जानकर संवृत्त शरीरभेद के लिए प्राज्ञ भिक्षु उन्हें (समभाव से) सहन करे। सूत्र- २६२
शब्द आदि काम विनाशशील हैं, वे प्रचुरतर मात्रा में हो तो भी भिक्षु उनमें रक्त न हो । ध्रुव वर्ण का सम्यक् विचार करके भिक्षु ईच्छा का भी सेवन न करे। सूत्र- २६३
आयुपर्यन्त शाश्वत रहने वाले वैभवों या कामभोगों के लिए कोई भिक्षु को निमंत्रित करे तो वह उसे (मायाजाल) समझे । दैवी माया पर भी श्रद्धा न करे । वह साधु उस समस्त माया को भलीभाँति जानकर उसका परि-त्याग करे। सूत्र - २६४
सभी प्रकार के विषयों में अनासक्त और मृत्युकाल का पारगामी वह मुनि तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ जानकर हितकर विमोक्ष त्रिविध विमोक्ष में से किसी एक विमोक्ष का आश्रय ले । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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