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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - २४४ वह मध्यस्थ और निर्जरा की भावना वाला भिक्षु समाधि का अनुपालन करे । आन्तरिक तथा बाह्य पदार्थों का व्युत्सर्ग करके शुद्ध अध्यात्मएषणा करे । सूत्र - २४५ यदि अपनी आयु के क्षेम में जरा-सा भी उपक्रम जान पडे तो उस संलेखना काल के मध्य में ही पण्डित भिक्ष शीघ्र पण्डितमरण को अपना ले। सूत्र - २४६ (संलेखन-साधक) ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन करे, उसे जीव-जन्तुरहित स्थान जानकर मुनि (वहीं) घास बिछा ले। सूत्र - २४७ वह वहीं निराहार हो कर लेट जाए । उस समय परीषहों और उपसर्गों से आक्रान्त होने पर सहन करे । मनुष्यकृत उपसर्गों से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन न करे। सूत्र - २४८ जो रेंगने वाले प्राणी हैं, या जो आकाश में उड़ने वाले हैं, या जो बिलों में रहते हैं, वे कदाचित् अनशनधारी मुनि के शरीर का माँस नोचे और रक्त पीए तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन करे। सूत्र - २४९ (वह मुनि ऐसा चिन्तन करे) ये प्राणी मेरे शरीर का विघात कर रहे हैं, (मेरे ज्ञानादि आत्मगुणों का नहीं, वह उस स्थान से उठकर अन्यत्र न जाए ।) आस्रवों से पृथक् हो जाने के कारण तृप्ति अनुभव करता हुआ (उन उपसर्गों को) सहन करे। सूत्र- २५० उस संलेखना-साधक की ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, आयुष्य के काल का पारगाम हो जाता है। सूत्र-२५१ ज्ञात-पुत्र ने भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण अनशन का यह आचार-धर्म बताया है । इसमें किसी भी अंगोपांग के व्यापार का, किसी दूसरे के सहारे का मन, वचन और काया से तथा कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करे। सूत्र - २५२ वह हरियाली पर शयन न करे, स्थण्डिल को देखकर वहाँ सोए । वह निराहार उपधि का व्युत्सर्ग करके परीषहों तथा उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे। सूत्र-२५३ आहारादि का परित्यागी मुनि इन्द्रियों से ग्लान होने पर समित होकर हाथ-पैर आदि सिकोड़े। जो अचल है तथा समाहित है, वह परिमित भूमि में शरीर-चेष्टा करता हुआ भी निन्दा का पात्र नहीं होता। सूत्र - २५४ वह शरीर-संधारणार्थ गमन और आगमन करे, सिकोड़े और पसारे । इसमें भी अचेतन की तरह रहे। सूत्र-२५५ बैठा-बैठा थक जाए तो चले, या थक जाने पर बैठ जाए, अथवा सीधा खड़ा हो जाए, या लेट जाए । खड़े होने में कष्ट होता हो तो अन्त में बैठ जाए। सूत्र-२५६ इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यक् रूप से संचालित करे । घुन-दीमक मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 44
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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