________________
आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध / चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक
उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा । (३)
अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर नहीं दूँगा और न ही उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा । (४)
( अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि) में अपनी आवश्यकता से अधिक अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय एवं ग्रहणीय तथा अपने यथोपलब्ध लाये हुए अशन आदि में से निर्जरा के उद्देश्य से साधर्मिक मुनियों की सेवा करूँगा, (अथवा ) मैं भी उन साधर्मिक मुनियों की जाने वाली सेवा को रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा। (५)
वह लाघव का सर्वांगीण विचार करता हुआ (सेवा का संकल्प करे ।) उस भिक्षु को तप का लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाता है। भगवान ने जिस प्रकार से इस का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए ।
सूत्र - २३९
जिस भिक्षु के मन में यह अध्यवसाय होता है कि मैं वास्तव में इस समय इस शरीर को क्रमशः वहन करने में ग्लान हो रहा हूँ । वह भिक्षु क्रमशः आहार का संक्षेप करे । आहार को क्रमशः घटाता हुआ कषायों को भी कृश करे । यों करता हुआ समाधिपूर्ण लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय, दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले |
इस प्रकार संलेखना करने वाला वह भिक्षु ग्राम, यावत् राजधानी में प्रवेश करे घास की याचना करे उसे लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जहाँ कीड़ों के अंडे, यावत् प्रतिलेखन कर फिर उसका कई बार प्रमार्जन करके घास का बिछौना करे । शरीर, शरीर की प्रवृत्ति और गमनागमन आदि ईर्ष्या का प्रत्याख्यान करे (इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन करके शरीर विमोक्ष करे) ।
यह सत्य है । इसे सत्यवादी वीतराग, संसार- पारगामी अनशन को अन्त तक निभाएगा या नहीं ? इस प्रकार की शंका से मुक्त, यावत् परिस्थितियों से अप्रभावित ( अनशन-स्थित- मुनि प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार करता है) वह भिक्षु प्रतिक्षण विनाशशील शरीर को छोड़कर, नाना प्रकार के उपसर्गों और परीषहों पर विजय प्राप्त करके इस घोर अनशन की अनुपालना करे। ऐसा करने पर भी उसकी यह काल-मृत्यु होती है । उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है।
इस प्रकार यह मोहमुक्त भिक्षुओं का आयतन हितकर यावत् जन्मान्तर में भी साथ चलने वाला है। ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-८ उद्देशक ८
सूत्र - २४०
जो (भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण एवं प्रायोपगमन, ये तीन ) विमोह क्रमश: हैं, धैर्यवान्, संयम का धनी एवं मतिमान् भिक्षु उनको प्राप्त करके सब कुछ जानकर एक अद्वितीय (समाधिमरण को अपनाए) । सूत्र - २४१
वे धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु दोनों प्रकार से हेयता का अनुभव करके क्रम से विमोक्ष का अवसर जान कर आरंभ से सम्बन्ध तोड़ लेते हैं ।
सूत्र - २४२
वह कषायों को कृश करके, अल्पाहारी बनकर परीषहों एवं दुर्वचनों को सहन करता है, यदि ग्लानि को प्राप्त होता है, तो भी आहार के पास न जाए।
सूत्र - २४३
(संलेखना एवं अनशन - साधना में स्थित श्रमण) न तो जीने की आकांक्षा करे, न मरने की अभिलाषा करे । जीवन और मरण दोनों में भी आसक्त न हो।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
Page 43