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आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध / चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक
सूत्र - २३४
जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाता है कि सचमुच मैं इस समय इस शरीर को वहन करने में क्रमशः ग्लान हो रहा हूँ, वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे और कषायों को कृश करे । समाधियुक्त लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले।
सूत्र- २३५
क्रमशः ग्राम में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मडंब में, पट्टन में, द्रोणमुख में, आकर में, आश्रम में, सन्निवेश में, निगम में या राजधानी में प्रवेश करके घास की याचना करे। उसे लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जहाँ कीड़े आदि के अंडे, जीव-जन्तु, बीज, हरियाली, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूँदी, काई, पानी का दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थान का बार-बार प्रतिलेखन करके, प्रमार्जन करके, घास का संधारा करे। उस पर स्थित हो, उस समय इत्वरिक अनशन ग्रहण कर ले।
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वह सत्य है। वह सत्यवादी, राग-द्वेष रहित, संसार सागर को पार करने वाला इंगितमरण की प्रतिज्ञा निभेगी या नहीं ?' इस प्रकार के लोगों के कहकहे से मुक्त या किसी भी रागात्मक कथा-कथन से दूर जीवादि पदार्थों का सांगोपांग ज्ञाता अथवा सब बातों से अतीत, संसार पारगामी इंगितमरण की साधना को अंगीकार करता है।
वह भिक्षु प्रतिक्षण विनाशशील और शरीर को छोड़कर नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके इसमें पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर अनशन का अनुपालन करे। तब ऐसा करने पर भी उसकी, वह काल-मृत्यु होती है। उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है।
इस प्रकार यह मोहमुक्त भिक्षुओं का आयतन हितकर सुखकर क्षमारूप या कालोपयुक्त, निःश्रेयस्कर और भवान्तर में साथ चलने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-८ उद्देशक-७
सूत्र - २३६
जो भिक्षु अचेल-कल्प में स्थित है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास के स्पर्श सहन कर सकता हूँ, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता हूँ, डॉस और मच्छरों के काटने को सह सकता हूँ, एक जाति के या भिन्न-भिन्न जाति, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं लज्जा निवारणार्थ प्रति-च्छादन को छोड़ने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसी स्थिति में वह भिक्षु कटिबन्धन धारण कर सकता है।
सूत्र - २३७
अथवा उस (अचेलकल्प) में ही पराक्रम करते हुए लज्जाजयी अचेल भिक्षु को बार-बार घास का स्पर्श चुभता है. शीत का स्पर्श होता है, गर्मी का स्पर्श होता है, डॉस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह अचेल उन एकजातीय या भिन्न-भिन्न जातीय नाना प्रकार के स्पर्शो को सहन करे। लाघव का सर्वांगीण चिन्तन करता हुआ (वह अचेल रहे ।
अचेल मुनि को तप का सहज लाभ मिल जाता है। अतः जैसे भगवान ने अचेलत्व का प्रतिपादन किया है. उसे उसी रूप में जानकर, सब प्रकार से, सर्वात्मना सम्यक्त्व या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए । सूत्र - २३८
जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा और उनके द्वारा लाये हु का सेवन करूँगा । (१)
अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन नहीं करूँगा । (२)
अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि में दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर नहीं दूंगा, लेकिन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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