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आगम सूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
भिक्षु का ऐसा प्रकल्प हो, वह उसका पालन करता हुआ प्राण त्याग कर दे, (प्रतिज्ञा भंग न करे) । (२)
कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊंगा, तथा उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन भी करूँगा । (३)
(अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन नहीं करूँगा । (४)
(अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि नहीं लाऊंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ सेवन करूँगा । (५)
श्रुतस्कन्ध / चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक
(अथवा) कोई भिक्षु प्रतिज्ञा करता है कि न तो मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि लाऊंगा और न ही मैं उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन करूँगा । (६)
(यों उक्त छः प्रकार की प्रतिज्ञा भंग न करे, भले ही वह जीवन का उत्सर्ग कर दे।)
आहार-विमोक्ष साधक को अनायास ही तप का लाभ प्राप्त हो जाता है। भगवान ने जिस रूप में इसका प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना समत्व या सम्यक्त्व का सेवन करे।
इस प्रकार वह भिक्षु तीर्थंकरों द्वारा जिस रूप में धर्म प्ररूपित हुआ है, उसी रूप में सम्यक्रूप से जानता और आचरण करता हुआ, शान्त विरत और अपने अन्तःकरण की प्रशस्त वृत्तियों में अपनी आत्मा को सुसमाहित करने वाला होता है । उसकी वह मृत्यु काल-मृत्यु है । वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है ।
इस प्रकार यह शरीरादि मोह से विमुक्त भिक्षुओं का अयतन है, हितकर है, सुखकर है, सक्षम है, निःश्रेयस्कर है और परलोक में भी साथ चलने वाला है। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-८ - उद्देशक- ६
सूत्र- २३१
जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार कर चूका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि में दूसे वस्त्र की याचना करूँगा ।
वह यथा- एषणीय वस्त्र की याचना करे । यहाँ से लेकर आगे ग्रीष्मऋतु आ गई तक का वर्णन पूर्ववत् । भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करे। यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके वह एक शाटक में ही रहे, (अथवा ) वह अचेल हो जाए। वह लाघवता का सब तरह से विचार करता हुआ (वस्त्र परित्याग करे) । वस्त्र - विमोक्ष करने वाले मुनि को सहज ही तप प्राप्त हो जाता है भगवान ने जिस प्रकार से उसका निरूपण किया है, उसे उसी रूप में निकट से जानकर यावत् समत्व को जानकर आचरण में लाए ।
सूत्र - २३२
जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाए कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, और न मैं किसी का हूँ.. वह अपनी आत्मा को एकाकी ही समझे । (इस प्रकार) लाघव का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (वह सहाय- विमोक्ष करे तो उसे तप सहज में प्राप्त हो जाता है। भगवान ने इसका जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, यावत् सम्यक् प्रकार से जानकर क्रियान्वित करे ।
सूत्र - २३३
वह भिक्षु या भिक्षुणी अशन आदि आहार करते समय आस्वाद लेते हुए बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए । यह अनास्वाद वृत्ति से लाघव का समग्र चिन्तन करते हुए (आहार करे) । (स्वाद- विमोक्ष से) वह तप का सहज लाभ प्राप्त करता है ।
भगवान ने जिस रूप में स्वाद - विमोक्ष का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना ( उसमें निहित ) सम्यक्त्व या समत्व को जाने और सम्यक् रूप से परिपालन करे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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