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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक समझे, उनका परित्याग कर दे । उन यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर (ऊनी) वस्त्र साथ में रखे; अथवा वह एकशाटक वाला होकर रहे । अथवा वह अचेलक हो जाए। सूत्र - २२६
(इस प्रकार) लाघवता को लाता या उसका चिन्तन करता हुआ वह उस वस्त्रपरित्यागी मुनि के (सहज में ही) तप सध जाता है। सूत्र- २२७
भगवान ने जिस प्रकार से इस (उपधि-विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराई-पूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे । सूत्र- २२८
जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं आक्रान्त हो गया हूँ, और मैं इस अनुकूल परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ, (वैसी स्थिति में) कोई-कोई संयम का धनी भिक्षु स्वयं को प्राप्त सम्पूर्ण प्रज्ञान एवं अन्तःकरण से उस उपसर्ग के वश न हो कर उसका सेवन न करने के लिए दूर हो जाता है।
उस तपस्वी भिक्षु के लिए वही श्रेयस्कर है, ऐसी स्थिति में उसे वैहानस आदि से मरण स्वीकार करनाश्रेयस्कर है । ऐसा करने में उसका वह काल-पर्याय-मरण है।
वह भिक्षु भी उस मृत्यु से अन्तक्रियाकर्ता भी हो सकता है।
इस प्रकार यह मरण प्राण-मोह से मुक्त भिक्षुओं का आयतन, हितकर, कालोपयुक्त, निःश्रेयस्कर, परलोक में साथ चलने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-८- उद्देशक-५ सूत्र - २२९
जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूँ । वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे । इससे आगे वस्त्र-विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गई है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह जैसे-जैसे वस्त्र जीर्ण हो गए हों, उनका परित्याग कर दे । यथा परिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो वह एक शाटक में रहे, या वह अचेल हो जाए । वह लाघवता का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (क्रमशः वस्त्र-विमोक्ष प्राप्त करे) । (इस प्रकार) मुनि को तप सहज ही प्राप्त हो जाता है।
भगवान ने इस (वस्त्र-विमोक्ष के तत्त्व) को जिस रूप में प्रतिपादित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से ममत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व क्रियान्वित करे।
जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैं दुर्बल हो गया हूँ। अतः मैं भिक्षाटन के लिए एक घर से दूसरे घर जाने में समर्थ नहीं हूँ। उसे सूनकर कोई गृहस्थ अपने घर से अशन, पान, खाद्य लाकर देने लगे तब वह भिक्षु पहले ही गहराई से विचारे - ‘आयुष्मन् गृहपति ! यह अभ्याहृत अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य मेरे लिए सेवनीय नहीं है, इसी प्रकार दूसरे (दोषों से दूषित आहारादि भी मेरे लिए गृहणीय नहीं है)। सूत्र-२३०
जिस भिक्षु का यह प्रकल्प होता है कि मैं ग्लान हूँ, मेरे साधर्मिक साधु अग्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया है, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा से साधर्मिकों द्वारा की जाने वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा । (१)
(अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु ग्लान है, मैं अग्लान हूँ; उसने अपनी सेवा के लिए मुझे अनुरोध नहीं किया है, (पर) मैंने उसकी सेवा के लिए उसे वचन दिया है। अतः निर्जरा के उद्देश्य से उस साधर्मिक की मैं सेवा करूँगा। जिस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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