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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सत्र-२१९
मतिमान् महामाहन श्री वर्द्धमान स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म को भली-भाँति समझ लो कि समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि दे, उन्हें देने के लिए मनुहार करे, उनका वैयावृत्य करे । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-८ - उद्देशक-३ सूत्र - २२०
कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबोधि प्राप्त करके मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए उद्यत होते हैं । तीर्थंकर तथा श्रुतज्ञानी आदि पण्डितों के वचन सूनकर, मेधावी साधक (समता का आश्रय ले, क्योंकि) आर्यों ने समता में धर्म कहा है, अथवा तीर्थंकरों ने समभाव से धर्म कहा है।
वे कामभोगों की आकांक्षा न रखनेवाले, प्राणियों का अतिपात और परिग्रह न रखते हुए समग्र लोकमें अपरिग्रहवान होते हैं । जो प्राणियों के लिए दण्ड-त्याग करके पाप कर्म नहीं करता, उसे ही महान् अग्रन्थ कहा गया है
ओज अर्थात् राग-द्वेष रहित द्युतिमान् का क्षेत्रज्ञ, उपपात और च्यवन को जानकर (शरीर की क्षण-भंगुरता का चिन्तन करे)। सूत्र - २२१
शरीर आहार से उपचित होते हैं, परीषहों के आघात से भग्न हो जाते हैं, किन्तु तुम देखो, आहार के अभाव में कईं साधक क्षुधा से पीड़ित होकर सभी इन्द्रियों से ग्लान हो जाते हैं। राग-द्वेष से रहित भिक्षु दया का पालन करता है सूत्र - २२२
जो भिक्षु सन्निधान-(आहारादि के संचय) के शस्त्र (संयमघातक प्रवृत्ति) का मर्मज्ञ है । वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ होता है । वह परिग्रह पर ममत्व न करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान करने वाला, किसी प्रकार की मिथ्या आग्रहयुक्त प्रतिज्ञा से रहित एवं राग और द्वेष के बन्धनों को छेदन करके निश्चिन्त जीवन यापन करता है। सूत्र - २२३
शीत-स्पर्श से काँपते हुए शरीर वाले उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति कहे-आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्रामधर्म (इन्द्रिय-विषय) तो पीड़ित नहीं कर रहे हैं ? (इस पर मुनि कहता है) आयुष्मन् गृहपति ! मुझे ग्राम-धर्म पीड़ित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ (इसीलिए मेरा शरीर शीत से प्रकम्पित हो रहा है) । अग्निकाय को उज्जवलित करना, प्रज्वलित करना, उससे शरीर को थोड़ासा भी तपाना या दूसरों को कहकर अग्नि प्रज्वलित करवाना अकल्पनीय है।
(कदाचित् वह गृहस्थ) इस प्रकार बोलने पर अग्निकाय को उज्जवलित-प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा तपाए या विशेष रूप से तपाए। उस अवसर पर अग्निकाय के आरम्भ को भिक्षु अपनी बुद्धि से विचारकर आगम के द्वारा भलीभाँति जानकर उस गृहस्थ से कहे कि अग्नि का सेवन मेरे लिए असेवनीय है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-८ - उद्देशक-४ सूत्र-२२४
जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करूँगा। वह यथा-एषणीय वस्त्रों की याचना करे और यथापरिगृहीत वस्त्रों को धारण करे।
वह उन वस्त्रों को न तो धोए और न रंगे, न धोए-रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे । दूसरे ग्रामों में जाते समय वह उन वस्त्रों को बिना छिपाए हुए चले । वह मुनि स्वल्प और अतिसाधारण वस्त्र रखे। वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री है सूत्र- २२५
जब भिक्षु यह जान ले कि हेमन्त ऋतु बीत गई है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह जिन-जिन वस्त्रों को जीर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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