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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक समारम्भ किया जाता है । मेधावी साधक उसका परिज्ञान करके, स्वयं इन षट्जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ न करे, न दूसरों से इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करवाए और न ही जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे । जो अन्य (भिक्षु) इन जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करते हैं, उनके कार्य से भी हम लज्जित होते हैं। इसे दण्डभीरु मेधावी मुनि परिज्ञात करके उस दण्ड का अथवा मृषावाद आदि किसी अन्य दण्ड का समारम्भ न करे। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-८ - उद्देशक-२ सूत्र- २१५
__ वह भिक्षु कहीं जा रहा हो, श्मशान में, सून मकान में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के नीचे, कुम्भारशाला में या गाँव के बाहर कहीं खड़ा हो, बैठा हो या लेटा हुआ हो अथवा कहीं भी विहार कर रहा हो, उस समय कोई गृहपति उसके पास आकर कहे- आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशन, पान, खाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन; प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके आपके उद्देश्य से बना रहा हूँया खरीद कर, उधार लेकर, किसी से छीनकर, दूसरे की वस्तु को उसकी बिना अनुमति के लाकर, या घर से लाकर आपको देता हूँ अथवा आपके लिए उपाश्रय बनवा देता हूँ। हे आयुष्मन् श्रमण! आप उसका उपभोग करें और (उस उपाश्रय में) रहें।
भिक्षु उस सुमनस् एवं सुवचस् गृहपति का निषेध के स्वर से कहे-आयुष्मन् गृहपति ! मैं तुम्हारे इस वचन को आदर नहीं देता, न ही तुम्हारे वचन को स्वीकार करता हूँ, जो तुम प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का समारम्भ करके मेरे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, यावत् समारंभ से मुझे देना चाहते हो, मेरे लिए उपाश्रय बनवाना चाहते हो । हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं विरत हो चूका हूँ। यह (मेरे लिए) अकरणीय होने से, (मैं स्वीकार नहीं कर सकता) सूत्र-२१६
वह भिक्षु जा रहा है, यावत् लेटा हुआ है, अथवा कहीं भी विचरण कर रहा है, उस समय उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति अपने आत्मगत भावों को प्रकट किये बिना प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक अशन, पान आदि बनवाता है, साधु के उद्देश्य से मोल लेकर, यावत् घर से लाकर देना चाहता है या उपाश्रय कराता है, वह उस भिक्षु के उपभोग के या निवास के लिए (करता है)।
उस (आरम्भ) को वह भिक्षु अपनी सद्बुद्धि से दूसरों से सूनकर यह जान जाए कि यह गृहपति मेरे लिए समारम्भ से अशनादि या वस्त्रादि बनवाकर या मेरे निमित्त यावत् उपाश्रय बनवा रहा है, भिक्षु उसकी सम्यक् प्रकार से पर्यालोचना करके, आगम में कथित आदेश से या पूरी तरह जानकर उस गृहस्थ को साफ-साफ बता दे कि ये सब पदार्थ मेरे लिए सेवन करने योग्य नहीं है। इस प्रकार मैं कहता हूँ। सूत्र-२१७
भिक्षु से पूछकर या बिना पूछे ही किसी गृहस्थ द्वारा ये (आहारादि पदार्थ) भिक्षु के समक्ष भेंट के रूप में लाकर रख देने पर (जब मुनि उन्हें स्वीकार नहीं करता), तब वह उसे परिताप देता है; मारता है, अथवा अपने नौकरों को आदेश देता है कि इसको पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ-पैर आदि काट डालो, उसे जला दो, इसका माँस पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो या इसे नखों से नोंच डालो, इसका सब कुछ लूट लो, इसके साथ जबर्दस्ती करो, इसे अनेक प्रकार से पीड़ित करो। उन सब दुःखरूप स्पर्शों के आ पड़ने पर धीर रहकर मुनि उन्हें सहन करे।
अथवा वह आत्मगुप्त मुनि अपने आचार-गोचर की क्रमशः सम्यक् प्रेक्षा करके उसके समक्ष अपना अनुपम आचार-गोचर कहे । अगर वह व्यक्ति दुराग्रही और प्रतिकूल हो, या स्वयं में उसे समझाने की शक्ति न हो तो वचन का संगोपन करके रहे । बुद्धों-तीर्थंकरों ने इसका प्रतिपादन किया। सूत्र - २१८
वह समनोज्ञ मुनि असमनोज्ञ साधु को अशन-पान आदि तथा वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ अत्यन्त आदरपूर्वक न दे, न उन्हें देने के लिए निमन्त्रित करे और न ही उनका वैयावृत्य करे। ऐसा मैं कहता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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