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आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/ चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक अध्ययन- ७- महापरिज्ञा
इस अध्ययन का नाम 'महापरिज्ञा' है, जो वर्तमान में अनुपलब्ध (विच्छिन्न) है ।
अध्ययन-८ विमोक्ष उद्देशक- १
सूत्र - २१०
मैं कहता हूँ - समनोज्ञ या असमनोज्ञ साधक को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल या पाद प्रोंछन आदरपूर्वक न दे, न देने के लिए निमंत्रित करे और न उनका वैयावृत्य करे ।
सूत्र - २११
असमनोज्ञ भिक्षु कदाचित् मुनि से कहे - ( मुनिवर !) तुम इस बात को निश्चित समझ लो - (हमारे मठ या आश्रम में प्रतिदिन अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रछन (मिलता है। तुम्हें ये प्राप्त हुए हों या न हुए हों तुमने भोजन कर लिया हो या न किया हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो; हमसे भिन्न धर्म का पालन करते हुए भी तुम्हें (यहाँ अवश्य आना है) । (यह बात) वह (उपाश्रय में) आकर कहता हो या चलते हुए कहता हो, अथवा उपाश्रय में आकर या मार्ग में चलते हुए वह अशन-पान आदि देता हो, उनके लिए निमंत्रित करता हो, या वैयावृत्य करता हो, तो उसकी बात का बिलकुल अनादर करता हुआ (चूप रहे)। ऐसा मैं कहता हूँ ।
सूत्र - २१२
इस मनुष्य लोक में कई साधकों को आचार-गोचर सुपरिचित नहीं होता । वे इस साधु-जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं । वे स्वयं प्राणीवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं ।
अथवा वे विविध प्रकार के वचनों का प्रयोग करते हैं। जैसे कि लोक है, लोक नहीं है। लोक ध्रुव है, लोक अध्रुव है। लोक सादि है, लोक अनादि है। लोक सान्त है, लोक अनन्त है । सुकृत है, दुष्कृत है । कल्याण है, पाप है। साधु है, असाधु है। सिद्धि है, सिद्धि नहीं है। नरक है. नरक नहीं है।
इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनमें कोई भी हेतु नहीं है, ऐसा जानो । इस प्रकार उनका धर्म न सु-आख्यात होता है और न ही सुप्ररूपित ।
सूत्र - २१३
जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन) रहे। ऐसा मैं कहता हूँ । (वह मुनि उन मतवादियों से कहे-) (आप के दर्शनों में आरम्भ) पाप सर्वत्र सम्मत है। मैं उसी (पाप) का निकट से अतिक्रमण करके ( स्थित हूँ यह मेरा विवेक (विमोक्ष) कहा गया है।
धर्म ग्राम में होता है, अथवा अरण्य में ? वह न तो गाँव में होता है, न अरण्य में, उसी (सम्यग् आचरण) को धर्म जानो, जो मतिमान् महामाहन भगवान ने प्रवेदित किया (बतलाया) है।
(उस धर्म के) तीन याम- १. प्राणातिपात विरमण, २. मृषावाद - विरमण, ३. अदत्तादान- विरमण रूप तीन महाव्रत कहे गए हैं, उन तीनों यामों) में ये आर्य सम्बोधि पाकर उस त्रियाम रूप धर्म का आचरण करने के लिए सम्यक् प्रकार से उत्थित होते हैं; जो शान्त हो गए हैं; वे (पापकर्मों के) निदान से विमुक्त कहे गए हैं ।
सूत्र - २१४
ऊंची नीची एवं तीरछी, सब दिशाओं में सब प्रकार से एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर कर्म
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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