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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक
अध्ययन-६- उद्देशक-४ सूत्र- २०७
वह (धूत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में, ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में, जनपदों में या जनपदान्तरों में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए) कुछ विद्वेषी जन हिंसक हो जाते हैं । अथवा (परीषहों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं । उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको सहन करे।।
राग और द्वेष से रहित सम्यग्दर्शी एवं आगमज्ञ मुनि लोक पर दयाभाव पूर्वक सभी दिशाओं और विदिशाओं में (स्थित) जीवलोक को धर्म का आख्यान करे । उसका विभेद करके, धर्माचरण के सुफल का प्रतिपादन करे।
वह मुनि सद्ज्ञान सूनने के ईच्छुक व्यक्तियों के बीच, फिर वे चाहे उत्थित हों या अनुत्थित, शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव एवं अहिंसा का प्रतिपादन करे । वह भिक्षु समस्त प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और समस्त सत्त्वों का हितचिन्तन करके धर्म का व्याख्यान करे। सूत्र - २०८
भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपको बाधा न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को बाधा पहुँचाए। किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का वध हो, तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी (धर्मोपदेशन करने वाला) वह महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के लिए असंदीन द्वीप की तरह शरण होता है।
इस प्रकार वह (संयम में) उत्थित, स्थितात्मा, अस्नेह, अनासक्त, अविचल, चल, अध्यवसाय को संयम से बाहर न ले जाने वाला मुनि होकर परिव्रजन करे । वह सम्यग्दृष्टि मुनि पवित्र उत्तम धर्म को सम्यक्रूरूप में जानकर (कषायों और विषयों) को सर्वथा उपशान्त करे । इसके लिए तुम आसक्ति को देखो।
ग्रन्थी में गृद्ध और उनमें निमग्न बने हुए, मनुष्य कामों से आक्रान्त होते हैं । इसलिए मुनि निःसंग रूप संयम से उद्विग्न-खेदखिन्न न हो।
जिन संगरूप आरम्भों से हिंसक वृत्ति वाले मनुष्य उद्विग्न नहीं होते, ज्ञानी मुनि उन सब आरम्भों को सब प्रकार से, सर्वात्मना त्याग देते हैं । वे ही मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करने वाले होते हैं।
__ ऐसा मुनि त्रोटक कहलाता है। ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र - २०९
शरीर के व्यापात को ही संग्रामशीर्ष कहा गया है । (जो मुनि उसमें हार नहीं खाता), वही (संसार का) पारगामी होता है।
आहत होने पर भी मुनि उद्विग्न नहीं होता, बल्कि लकड़ी के पाटिये की भाँति रहता है । मृत्युकाल निकट आने पर (विधिवत् संलेखना से) जब तक शरीर का भेद न हो, तब तक वह मरणकाल की प्रतीक्षा करे । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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