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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-२०१ इस प्रकार वे शिष्य दिन और रात में उन महावीर और प्रज्ञानवान द्वारा क्रमशः प्रशिक्षित किये जाते हैं। उनसे विशुद्ध ज्ञान पाकर उपशमभाव को छोड़कर कुछ शिष्य कठोरता अपनाते हैं । वे ब्रह्मचर्य में निवास करके भी उस आज्ञा को यह (तीर्थंकरकी आज्ञा) नहीं है। ऐसा मानते हुए (गुरुजनोंके वचनोंकी अवहेलना करते हैं ।) कुछ व्यक्ति (आचार्यादि द्वारा) कथित (दुष्परिणामों) को सून-समझकर हम (आचार्यादि से) सम्मत या उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएंगे इस प्रकार के संकल्प से प्रव्रजित होकर वे (मोहोदयवश) अपने संकल्प के प्रति सुस्थिर नहीं रहते । वे विविध प्रकार से जलते रहते हैं, कामभोगों में गृद्ध या रचे-पचे रहकर (तीर्थंकरों द्वारा) प्ररूपित समाधि को नहीं अपनाते, शास्ता को भी वे कठोर वचन कह देते हैं। सूत्र - २०२ शीलवान, उपशान्त एवं संयम-पालन में पराक्रम करने वाले मुनियों को वे अशीलवान कहकर बदनाम करते हैं। यह उन मन्दबुद्धि लोगों की मूढ़ता है। सूत्र-२०३ कुछ संयम से निवृत्त हुए लोग आचार-विचार का बखान करते हैं, (किन्तु) जो ज्ञान से भ्रष्ट हो गए, वे सम्यग् दर्शन के विध्वंसक होकर (स्वयं चारित्र-भ्रष्ट हो जाते हैं।) सूत्र - २०४ कईं साधक नत (समर्पित) होते हुए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बिगाड़ देते हैं । कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट होने पर केवल जीवन जीने के निमित्त से (संयम और संयमीवेश से) निवृत्त हो जाते हैं। उनका गृहवास से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो जाता है, क्योंकि साधारण जनों द्वारा भी वे निन्दनीय हो जाते हैं तथा (आसक्त होने से) वे पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र में वे नीचे के स्तर के होते हुए भी अपने आपको ही विद्वान् मानकर मैं ही सर्वाधिक विद्वान् हूँ, इस प्रकार से डींग मारते हैं । जो उनसे उदासीन रहते हैं, उन्हें वे कठोर वचन बोलते हैं । वे (उन मध्यस्थ मुनियों के पूर्व-आचरित) कर्म को लेकर बकवास करते हैं, अथवा असत्य आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करते हैं । बुद्धिमान् मुनि (इन सबको अज्ञ एवं धर्म-शून्य जन की चेष्टा समझकर) अपने धर्म को भलीभाँति जाने-पहचाने। सूत्र-२०५ (धर्म से पतित को इस प्रकार अनुशासित करते हैं-) तू अधर्मार्थी है, बाल है, आरम्भार्थी है, (आरम्भ-कर्ताओं का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है-) प्राणियों का हनन करो, प्राणियों का वध करने वालों का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है । (भगवान ने) घोर धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी अपेक्षा कर रहा है। वह (अधर्मार्थी) विषण्ण और वितर्द (हिंसक) कहा गया है। ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र-२०६ ओ (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का मैं क्या करूँगा? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं । दीन और पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक हो जाते हैं। उनमें से कुछ साधकों की श्लाघारूप कीर्ति पापरूप हो जाती है, यह श्रमण विभ्रान्त है, विभ्रान्त है। देख ! संयम से भ्रष्ट होने वाले कईं मुनि उत्कृष्ट आचार वालों के बीच शिथिलाचारी, समर्पित मुनियों के बीच असमर्पित, विरत मुनियों के बीच अविरत तथा साधुओं के बीच (चारित्रहीन) होते हैं । (इस प्रकार संयम-भ्रष्ट साधकों को) निकट से भलीभाँति जानकर पण्डित, मेधावी, निष्ठितार्थ वीर मुनि सदा आगम के अनुसार (संयम में) पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूँ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 35
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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