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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१९७ सम्यग्दर्शन-सम्पन्न मुनि सब प्रकार की शंकाएं छोड़कर दुःख-स्पर्शों को समभाव से सहे । हे मानवो ! धर्मक्षेत्र में उन्हें ही नग्न कहा गया है, जो मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नहीं आते। आज्ञा में मेरा धर्म है, यह उत्तर बाद इस मनुष्यलोक में मनुष्यों के लिए प्रतिपादित किया है । विषय से उपरत साधक ही इसका आसेवन करता है। वह कर्मों का परिज्ञान करके पर्याय (संयमी जीवन) से उसका क्षय करता है । इस (निर्ग्रन्थ संघ) में कुछ लघुकर्मी साधुओं द्वारा एकाकी चर्या स्वीकृत की जाती है । उसमें वह एकल-विहारी साधु विभिन्न कुलों से शुद्धएषणा और सर्वेषणा से संयम का पालन करता है। वह मेधावी (ग्राम आदि में) परिव्रजन करे । सुगन्ध या दुर्गन्ध से युक्त (जैसा भी आहार मिले, उसे समभाव से ग्रहण करे) अथवा एकाकी विहार साधना से भयंकर शब्दों को सूनकर या भयंकर रूपों को देखकर भयभीत न हो। हिंस्र प्राणी तुम्हारे प्राणों को क्लेश पहुँचाए, (उससे विचलित न हो) । उन परीषहजनित-दुःखों का स्पर्श होने पर धीर मुनि उन्हें सहन करे । ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-६ - उद्देशक-३ सूत्र - १९८ सतत सु-आख्यात धर्म वाला विधूतकल्पी (आचार का सम्यक् पालन करने वाला) वह मुनि आदान (मर्यादा से अधिक वस्त्रादि) का त्याग कर देता है। जो भिक्षु अचेलक रहता है, उस भिक्षु को ऐसी चिन्ता उत्पन्न नहीं होती कि मेरा वस्त्र सब तरह से जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूँगा, फटे वस्त्र को सीने के लिए धागे की याचना करूँगा, फिर सूई की याचना करूँगा, फिर उस वस्त्र को साँधूंगा, उसे सीऊंगा, छोटा है इसलिए दूसरा टुकड़ा जोड़कर बड़ा बनाऊंगा, बड़ा है इसलिए फाड़कर छोटा बनाऊंगा, फिर उसे पहनूँगा और शरीर को ढकूँगा। __ अथवा अचेलत्व-साधनामें पराक्रम करते हुए निर्वस्त्र मुनि को बार-बार तिनकों का स्पर्श, सर्दी और गर्मी का तथा डाँस तथा मच्छरों का स्पर्श पीड़ित करता है । अचेलक मुनि उनमें से एक या दूसरे, नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे। अपने आपको लाघवयुक्त जानता हुआ वह अचेलक एवं तितिक्षु भिक्षु तपसे सम्पन्न होता है। भगवान ने जिस रूप में अचेलत्व का प्रतिपादन किया है उसे उसी रूप में जान-समझकर, सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व जाने । ..... जीवन के पूर्व भाग में प्रव्रजित होकर चिरकाल तक संयम में विचरण करनेवाले, चारित्र-सम्पन्न तथा संयम में प्रगति करने वाले महान वीर साधुओं ने जो (परीषहादि) सहन किये हैं, उसे तू देख । सूत्र-१९९ प्रज्ञावान मुनियों की भुजाएं कृश होती हैं, उनके शरीर में रक्त-माँस बहुत कम हो जाते हैं। संसार-वृद्धि की राग-द्वेष-कषायरूप श्रेणी को प्रज्ञा से जानकर छिन्न-भिन्न करके वह मुनि तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र-२०० चिरकाल से मुनिधर्म में प्रव्रजित, विरत और संयम में गतिशील भिक्षु का क्या अरति धर दबा सकती है ? (आत्मा के साथ धर्म का) संधान करने वाले तथा सम्यक् प्रकार से उत्थित मुनि को (अरति अभिभूत नहीं कर सकती) जैसे असंदीन द्वीप (यात्रियों के लिए) आश्वासन-स्थान होता है, वैसे ही आर्य द्वारा उपदिष्ट धर्म (संसार-समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन-स्थान) होता है। मुनि (भोगों की) आकांक्षा तथा प्राण-वियोग न करने के कारण लोकप्रिय, मेधावी और पण्डित कहे जाते हैं। जिस प्रकार पक्षी के बच्चे का पालन किया जाता है, उसी प्रकार धर्म में जो अभी तक अनुत्थित हैं, उन शिष्यों का वे क्रमशः वाचना आदि के द्वारा रातदिन पालन-संवर्द्धन करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 34
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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