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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१९२ हे मुने! समझो, सूनने की ईच्छा करो, मैं धूतवाद का निरूपण करूँगा । (तुम) इस संसार में आत्मत्व से प्रेरित होकर उन-उन कुलों में शुक्र-शोणित के अभिषेक-से माता के गर्भ में कललरूप हुए, फिर अर्बुद और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग-स्नायु, नस, रोम आदि से क्रम से अभिनिष्पन्न हुए, फिर प्रसव होकर संवर्द्धित हुए, तत्पश्चात् अभिसम्बुद्ध हुए, फिर धर्म-श्रवण करके विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण किया। इस प्रकार क्रमशः महामुनि बनते हैं। सूत्र-१९३ मोक्षमार्ग-संयम में पराक्रम करते हुए उस मुनि के माता-पिता आदि करुण विलाप करते हुए यों कहते हैं- तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व है । इस प्रकार आक्रन्द करते हुए वे रुदन करते हैं। ..... (वे रुदन करते हुए स्वजन कहते हैं) जिसने माता-पिता को छोड़ दिया है, ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है और न ही संसार-सागर को पार कर सकता है। वह मुनि (पारिवारिक जनों का विलाप सूनकर) उनकी शरण में नहीं जाता । वह तत्त्वज्ञ पुरुष भला कैसे उस (गृहवास) में रमण कर सकता है ? मुनि इस ज्ञान को सदा अच्छी तरह बसा ले । ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-६- उद्देशक-२ सूत्र-१९४ (काम-रोग आदि से) आतुर लोक (समस्त प्राणिजगत) को भलीभाँति जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, ब्रह्मचर्य में बास करके बसे (संयमी साधु) अथवा (सराग साधु) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते। सूत्र-१९५ वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद-प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोत्तर आने वाले दुःस्सह परीषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि-धर्म का त्याग कर देते हैं)। विविध कामभोगों को अपनाकर गाढ़ ममत्व रखने वाले व्यक्ति का तत्काल (प्रव्रज्या-परित्याग के) अन्तर्मुहूर्त में या अपरिमित समय में शरीर छूट सकता है। इस प्रकार वे अनेक विघ्नों और द्वन्द्वों या अपूर्णताओं से युक्त कामभोगों से अतृप्त ही रहते हैं। सूत्र-१९६ यहाँ कईं लोग, धर्म को ग्रहण करके निर्ममत्वभाव से धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, अथवा धर्माचरण में इन्द्रिय और मन को समाहित करके विचरण करते हैं । वह अलिप्त/अनासक्त और सुदृढ़ रहकर (धर्माचरण करते हैं) समग्र आसक्ति को छोड़कर वह (धर्म के प्रति) प्रणत महामुनि होता है, (अथवा) वह महामुनि संयम में या कर्मों को धूनने में प्रवृत्त होता है । (फिर वह महामुनि) सर्वथा संग का (त्याग) करके (यह भावना करे कि), मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूँ। वह इस (तीर्थंकर के संघ) में स्थित, विरत तथा (समाचारी में) यतनाशील अनगार सब प्रकार से मुण्डित होकर पैदल विहार करता है, जो अल्पवस्त्र या निर्वस्त्र है, वह अनियतवासी रहता है या अन्त-प्रान्तभोजी होता है, वह भी ऊनोदरी तप का सम्यक् प्रकार से अनुशीलन करता है। (कदाचित्) कोई विरोधी मनुष्य उसे गाली देता है, मारता-पीटता है, उसके केश उखाड़ता या खींचता है, पहले किये हुए किसी घृणित दुष्कर्म की याद दिलाकर कोई बकझक करता है, कोई व्यक्ति तथ्यहीन शब्दों द्वारा (सम्बोधित करता है), हाथ-पैर आदि काटने का झूठा दोषारोपण करता है; ऐसी स्थिति में मुनि सम्यक् चिन्तन द्वारा समभाव से सहन करे । उन एकजातीय और भिन्नजातीय परीषहों को उत्पन्न हुआ जानकर समभाव से सहन करता हुआ संयम में विचरण करे । (वह मुनि) लज्जाकारी और अलज्जाकारी (परीषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करता हुआ विचरण करे)। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 33
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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