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आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/ चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक अध्ययन - ६ - धूत उद्देशक- १
सूत्र - १८६
इस मर्त्यलोक में मनुष्यों के बीच में ज्ञाता वह पुरुष आख्यान करता है । जिसे ये जीव-जातियाँ सब प्रकार से भली-भाँति ज्ञात होती हैं, वही विशिष्ट ज्ञान का सम्यग् आख्यान करता है ।
वह (सम्बुद्ध पुरुष) इस लोक में उनके लिए मुक्ति-मार्ग का निरूपण करता है, जो (धर्माचरण के लिए) सम्यक् उद्यत है, मन, वाणी और काया से जिन्होंने दण्डरूप हिंसा का त्याग कर स्वयं को संयमित किया है, जो समाहित हैं तथा सम्यग् ज्ञानवान हैं । कुछ (विरले लघुकर्मा) महान् वीर पुरुष इस प्रकार के ज्ञान के आख्यान को सूनकर (संयममें) पराक्रम भी करते हैं। (किन्तु उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं, इसलिए (संयममें) विषाद पाते हैं। मैं कहता हूँ-जैसे एक कछुआ होता है, उसका चित्त (एक) महाहृद में लगा हुआ है। वह सरोवर शैवाल और कमल के पत्ते से ढका हुआ है । वह कछुआ उन्मुक्त आकाश को देखने के लिए (कहीं) छिद्र को भी नहीं पा रहा है । जैसे वृक्ष अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग हैं जो अनेक सांसारिक कष्ट, आदि बार-बार पाते हुए भी गृहवास को नहीं छोड़ते) ।
इसी प्रकार कईं (गुरुकर्मा) लोग अनेक कुलों में जन्म लेते हैं, किन्तु रूपादि विषयों में आसक्त होकर (अनेक प्रकार के दुःखों से, उपद्रवों से आक्रान्त होने पर) करुण विलाप करते हैं, (लेकिन गृहवास को नहीं छोड़ते ) । ऐसा व्यक्ति दुःखों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते ।
अच्छा तू देख वे (मूढ़ मनुष्य) उन कुलों में आत्मत्व के लिए निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैं । सूत्र - १८७-१८९
गण्डमाला, कोढ़, राजयक्ष्मा, अपस्मार, काणत्व, जड़ता कुणित्व, कुबड़ापन उदररोग, मूकरोग, शोथरोग, भस्मकरोग, कम्पनवात, पंगुता, श्लीपदरोग और मधुमेह ।
ये सोलह रोग क्रमशः कहे गए हैं। इसके अनन्तर आतंक और अप्रत्याशित (दुःखों के स्पर्श प्राप्त होते हैं।
सूत्र - १९०
उन मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात और च्यवन को जानकर तथा कर्मों के विपाक का भलीभाँति विचार करके उसके यथातथ्य को सूनो । (इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताए गए हैं, जो अंधे होते हैं और अन्धकार में ही रहते हैं । वे प्राणी उसीको एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द स्पर्शो का प्रतिसंवेदन करते हैं। बुद्धों (तीर्थंकरों ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है।
(और भी अनेक प्रकार के) प्राणी होते हैं, जैसे- वर्षज, रसज, उदक रूप-एकेन्द्रिय अप्कायिक जीव या जल में उत्पन्न होने वाले कृमि या जलचर जीव, आकाशगामी पक्षी आदि वे प्राणी अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं । (अतः) तू देख, लोक में महान् भय है ।
सूत्र - १९१
संसार में जीव बहुत दुःखी हैं। मनुष्य काम-भोगों में आसक्त हैं । इस निर्बल शरीर को सुख देने के लिए प्राणियों के वध की ईच्छा करते हैं । वेदना से पीड़ित वह मनुष्य बहुत दुःख पाता है। इसलिए वह अज्ञानी प्राणियों को कष्ट देता है।
इन (पूर्वोक्त) अनेक रोगों को उत्पन्न हुए जानकर आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों को) परिताप देते हैं । तू (विवेकद्रष्टि से देख | ये (प्राणिघातक-चिकित्साविधियाँ कर्मोदयजनित रोगों का शमन करने में) समर्थ नहीं हैं । (अतः।) इनसे तुमको दूर रहना चाहिए।
मुनिवर ! तू देख ! यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महान् भयरूप है। (इसलिए चिकित्सा के निमित्त भी) किसी प्राणी का अतिपात / वध मत कर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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