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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक है । जो ईससे अभिभूत नहीं होता, वह निरालम्बनता पाने में समर्थ होता है।
जो महान् होता है उसका मन (संयम से) बाहर नहीं होता।
प्रवाद (सर्वज्ञ तीर्थंकरों के वचन) से प्रवाद (विभिन्न दार्शनिकों या तीर्थकों के बाद) को जानना चाहिए । (अथवा) पूर्वजन्म की स्मृति से, तीर्थंकर से प्रश्न का उत्तर पाकर, या किसी अतिशय ज्ञानी या निर्मल श्रुतज्ञानी आचार्यादि से सूनकर (यथार्थ तत्त्व को जाना जा सकता है।) सूत्र-१८१
___ मेधावी निर्देश (तीर्थंकरादि के आदेश) का अतिक्रमण न करे । वह सब प्रकार से भली-भाँति विचार करके सम्पूर्ण रूप से पूर्वोक्त जाति-स्मरण आदि तीन प्रकार से साम्य को जाने।
इस सत्य (साम्य) के परिशीलन में आत्म-रमण की परिज्ञा करके आत्मलीन होकर विचरण करे । मोक्षार्थी अथवा संयम-साधना द्वारा निष्ठितार्थ वीर मुनि आगम-निर्दिष्ट अर्थ या आदेश के अनुसार सदा पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र- १८२
ऊपर नीचे, और मध्य में स्रोत हैं । ये स्रोत कर्मों के आस्रवद्वार हैं, जिनके द्वारा समस्त प्राणियों को आसक्ति पैदा होती है, ऐसा तुम देखो। सूत्र - १८३
(राग-द्वेषरूप) भावावर्त का निरीक्षण करके आगमविद् पुरुष उससे विरत हो जाए । विषयासक्तियों के या आस्रवों के स्रोत हटाकर निष्क्रमण करनेवाला यह महान् साधक अकर्म होकर लोक को प्रत्यक्ष जानता, देखता है।
(इस सत्य का) अन्तर्निरीक्षण करनेवाला साधक इस लोकमें संसार-भ्रमण और उसके कारण की परिज्ञा करके उन (विषय-सुखों) की आकांक्षा नहीं करता। सूत्र - १८४
इस प्रकार वह जीवों की गति-आगति के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यानरत मुनि जन्म-मरण के वृत्त मार्ग को पार कर जाता है।
(उस मुक्तात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी स्वर लौट जाते हैं-वहाँ कोई तर्क नहीं है । वहाँ मति भी प्रवेश नहीं कर पाती, वह (बुद्धि ग्राह्य नहीं है) । वहाँ वह समस्त कर्ममल से रहित ओजरूप प्रतिष्ठान से रहित और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) ही है।
वह न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमण्डल है । वह न कृष्ण है, न नीला है, न लाल है, न पीला है और न शुक्ल है । न सुगन्ध(युक्त) है और न दुर्गन्ध(युक्त) है । वह न तिक्त है, न कड़वा है, न कसैला है, न खट्टा है और न मीठा है, वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न ठण्डा है, न गर्म है, न चिकना है, और न रूखा है । वह कायवान् नहीं है । वह जन्मधर्मा नहीं है, वह संगरहित है, वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है।
वह (मुक्तात्मा) परिज्ञ है, संज्ञ है । वह सर्वतः चैतन्यमय है । (उसके लिए) कोई उपमा नहीं है । वह अरूपी (अमूर्त) सत्ता है। वह पदातीती है, उसको बोध कराने के लिए कोई पद नहीं है। सूत्र - १८५
वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है । बस इतना ही है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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