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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक वे काल प्राप्त होने की कांक्षा-समाधि-मरण की अभिलाषा से (जीवन के अन्तिम क्षण तक मोक्षमार्ग में) परिव्रजन (उद्यम) करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र-१७४ विचिकित्सा-प्राप्त आत्मा समाधि प्राप्त नहीं कर पाता । कुछ लघुकर्मा सित (बद्ध) आचार्य का अनुगमन करते हैं, कुछ असित (अप्रतिबद्ध) भी विचिकित्सादि रहित होकर (आचार्य का) अनुगमन करते हैं । इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हुआ अनुगमन न करने वाला कैसे उदासीन नहीं होगा? सूत्र-१७५ वही सत्य है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है। सूत्र-१७६ श्रद्धावान् सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा शील एवं प्रव्रज्या को सम्यक् स्वीकार करने या पालने वाला (१) कोई मुनि जिनोक्त तत्त्व को सम्यक् मानता है और उस समय (उत्तरकाल में) भी सम्यक् (मानता) रहता है । (२) कोई प्रव्रज्याकाल में सम्यक् मानता है, किन्तु बाद में किसी समय उसका व्यवहार असम्यक् हो जाता है । (३) कोई मुनि (प्रव्रज्याकाल में) असम्यक् मानता है किन्तु एक दिन सम्यक् हो जाता है । (४) कोई साधक उसे असम्यक् मानता है और बाद में भी असम्यक् मानता रहता है । (५) (वास्तव में) जो साधक सम्यक् हो या असम्यक्, उसकी सम्यक् उत्प्रेक्षा के कारण वह सम्यक् ही होती है । (६) जो साधक किसी वस्तु को असम्यक् मान रहा है, वह सम्यक् हो या असम्यक्, उसके लिए वह असम्यक् ही होती है। (इस प्रकार) उत्प्रेक्षा करने वाला उत्प्रेक्षा नहीं करने वाले से कहता है- सम्यक् भाव समभाव - माध्यस्थ भाव से उत्प्रेक्षा करो। इस (पूर्वोक्त) प्रकार से व्यवहार में होने वाली सम्यक्-असम्यक् की गुत्थी सुलझाई जा सकती है। तुम (संयम में सम्यक् प्रकार से) उत्थित और स्थिति की गति देखो । तुम बाल भाव में भी अपने-आपको प्रदर्शित मत करो। सूत्र-१७७ तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है। ज्ञानी पुरुष ऋजु होते हैं, वह प्रतिबोध पाकर जीने वाला होता है । इसके कारण वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से हनन करवाता है । (न ही हनन करने वाले का अनुमोदन करता है ।) कृत-कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है, इसलिए किसी का हनन करने की ईच्छा मत करो। सूत्र-१७८ जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । क्योंकि ज्ञानों से आत्मा जानता है, इसलिए वह आत्मा है । उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से आत्मा की प्रतीति होती है । यह आत्म-वादी सम्यक्तता का परिगामी कहा गया है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-५ - उद्देशक-६ सूत्र-१७९ कुछ साधक अनाज्ञा में उद्यमी होते हैं और कुछ साधक आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं । यह तुम्हारे जीवन में न हो | यह (अनाज्ञा में अनुद्यम और आज्ञा में उद्यम) मोक्ष मार्ग-दर्शन-कुशल तीर्थंकर का दर्शन है। साधक उसी में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उसी मुक्ति में अपनी मुक्ति माने, सब कार्यों में उसे आगे करके प्रवृत्त हो, उसी के संज्ञानस्मरण में संलग्न रहे, उसी में चित्त को स्थिर कर दे, उसी का अनुसरण करे । सूत्र - १८० जिसने परीषह-उपसर्गों-बाधाओं तथा घातिकर्मों को पराजित कर दिया है, उसीने तत्त्व का साक्षात्कार किया मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 30
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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