SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक आतंक आदि परीषहजनित संबाधाएं बार-बार आती हैं, तब उस अज्ञानी के लिए उन बाधाओं को पार करना अत्यंत कठिन होता है । (ऐसी अव्यक्त अपरिपक्व अवस्था में - मैं अकेला विचरण करूँ), ऐसा विचार तुम्हारे मन में भी न हो यह कुशल (महावीर) का दर्शन/उपदेश है । अतः परिपक्व साधक उस (वीतराग महावीर के दर्शनमें) ही एकमात्र द्रष्टि रखे, उसी के द्वारा प्ररूपित विषय-कषायासक्ति से मुक्ति में मुक्ति माने, उसी को आगे रखकर विचरण करे, उसीका संज्ञान सतत सब कार्यों में रखे, उसीके सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे । मुनि यतनापूर्वक विहार करे, चित्त को गति में एकाग्र कर, मार्ग का सतत अवलोकन करते हुए चले । जीव-जन्तु को देखकर पैरों को आगे बढ़ने से रोक ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर गमन करे। सूत्र-१७१ वह भिक्षु जाता हुआ, वापस लौटता हुआ, अंगों को सिकोड़ता हुआ, फैलाता समस्त अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर, सम्यक् प्रकार से परिमार्जन करता हुआ समस्त क्रियाएं करे। किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर प्राणी परिताप पाते हैं । कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, तो उसके इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है । (किन्तु) आकुट्टि से प्रवृत्ति करते हुए जो कर्मबन्ध होता है, उसका (क्षय) ज्ञपरिज्ञा से जानकर दस प्रकार के प्रायश्चित्त में से किसी प्रायश्चित्त से करे। इस प्रकार उसका (कर्मबन्ध का) विलय अप्रमाद (से यथोचित प्रायश्चित्त से) होता है, ऐसा आगमवेत्ता शास्त्रकार कहते हैं। सूत्र-१७२ वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति से युक्त, सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन करता है - यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा?' वह स्त्रियाँ परम आराम हैं । (किन्तु मैं तो सहज आत्मिक-सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी?) ग्रामधर्म-(इन्द्रिय-विषयवासना) से उत्पीड़ित मुनि के लिए मुनिन्द्र तीर्थंकर महावीर भगवान ने यह उपदेश दिया है कि- वह निर्बल आहार करे, ऊनोदरिका भी करे, ऊर्ध्व स्थान होकर कायोत्सर्ग करे-(आतापना ले), ग्रामानुग्राम विहार भी करे, आहार का परित्याग करे, स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन का परित्याग करे। (स्त्री-संग में रत अतत्त्वदर्शियों को कहीं-कहीं) पहले दण्ड मिलता है और पीछे (दुःखों का) स्पर्श होता है, अथवा कहीं-कहीं पहले (स्त्री-सुख) स्पर्श मिलता है, बाद में उसका दण्ड (मार-पीट, आदि) मिलता है। इसलिए ये काम-भोग कलह और आसक्ति पैदा करने वाले होते हैं । स्त्री-संग से होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुष्परिणामों को आगम के द्वारा तथा अनुभव द्वारा समझकर आत्मा को उनके अनासेवन की आज्ञा दे । ऐसा मैं कहता हूँ। ब्रह्मचारी कामकथा-न करे, वासनापूर्वक द्रष्टि से स्त्रियों के अंगोपांगों को न देखे, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण न करे, उन पर ममत्व न करे, शरीर की साज-सज्जा से दूर रहे, वचनगुप्ति का पालक वाणी से कामुक आलाप न करे, मन को भी कामवासना की ओर जाते हुए नियंत्रित करे, सतत पाप का परित्याग करे । इस (अब्रह्मचर्य-विरति रूप) मुनित्व को जीवन में सम्यक् प्रकार से बसा ले । ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-५ - उद्देशक-५ सूत्र-१७३ ____ मैं कहता हूँ जैसे एक जलाशय जो परिपूर्ण है, समभभाग में स्थित है, उसकी रज उपशान्त है, (अनेक जलचर जीवों का) संरक्षण करता हुआ, वह जलाशय स्रोत के मध्य में स्थित है । (ऐसा ही आचार्य होता है) । इस मनुष्यलोक में उन (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) सर्वतः गुप्त महर्षियों को तू देख, जो उत्कृष्ट ज्ञानवान् (आगमश्रुत-ज्ञाता) हैं, प्रबुद्ध हैं और आरम्भ से विरत हैं। यह (मेरा कथन) सम्यक् है, इसे तुम अपनी तटस्थ बुद्धि से देखो। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 29
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy