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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१६५
(इस मुनिधर्म में मोक्ष-मार्ग साधक तीन प्रकार के होते हैं)- एक वह होता है, जो पहले साधना के लिए उठता है और बाद में (जीवन पर्यन्त) उत्थित ही रहता है । दूसरा वह है - जो पहले साधना के लिए उठता है, किन्तु बाद में गिर जाता है। तीसरा वह होता है - जो न तो पहले उठता है और न ही बाद में गिरता है।
जो साधक लोक को परिज्ञा से जान और त्याग कर पुनः उसी का आश्रय लेता या ढूँढ़ता है, वह भी वैसा ही (गृहस्थतुल्य) हो जाता है। सूत्र-१६६
इस (उत्थान-पतन के कारण) को केवलज्ञानालोक से जानकर मुनिन्द्र ने कहा-मुनि आज्ञा में रुचि रखे, वह पण्डित है, अतः स्नेह से दूर रहे । रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में (स्वाध्याय में) यत्नवान रहे, सदा शील का सम्प्रेक्षण करे (लोक में सारभूत तत्त्व को) सूनकर काम और लोभेच्छा से मुक्त हो जाए।
इसी (कर्म-शरीर) के साथ युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने में तुझे क्या मिलेगा? सूत्र-१६७
(अन्तर-भाव) युद्ध के योग अवश्य ही दुर्लभ है । जैसे कि तीर्थंकरों ने इस (भावयुद्ध) के परिज्ञा और विवेक (ये दो शस्त्र) बताए हैं।
(मोक्ष-साधना के लिए उत्थित होकर) भ्रष्ट होनेवाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि में फँस जाता है । इस अर्हत् शासनमें यह कहा जाता है - रूप (तथा रसादि)में एवं हिंसामें (आसक्त होनेवाला उत्थित होकर भी पतित हो जाता है)
केवल वही एक मुनि मोक्षपथ पर अभ्यस्त रहता है, जो लोक का अन्यथा उत्प्रेक्षण करता रहा है अथवा जो लोक की उपेक्षा करता रहता है।
इस प्रकार कर्म को सम्यक् प्रकार जानकर वह सब प्रकार से हिंसा नहीं करता, संयम का आचरण करता है, (अकार्यमें प्रवृत्त होने पर) धृष्टता नहीं करता । प्रत्येक प्राणी का सुख अपना-अपना होता है, यह देखता हुआ (वह किसी की हिंसा न करे)।
मुनि समस्त लोक में कुछ भी आरम्भ तथा प्रशंसा का अभिलाषी होकर न करे । मुनि अपने एकमात्र लक्ष्य - मोक्ष की ओर मुख करके (चले), वह (मोक्षमार्ग से) विपरीत दिशाओं का तेजी से पार कर जाए, विरक्त होकर चले, स्त्रियों के प्रति अरत रहे। सूत्र - १६८
संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप अन्तःकरण से पापकर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे । जिस सम्यक् को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो। (सम्यक्त्व) का सम्यक्प से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल हैं, आसक्तिमूलक स्नेह से आर्द्र बने हुए हैं, विषयास्वादन में लोलुप हैं, वक्राचारी हैं, प्रमादी हैं, जो गृहवासी हैं।
मुनि मुनित्व ग्रहण करके स्थूल और सूक्ष्म शरीर को प्रकम्पित करें। समत्वदर्शी वीर प्रान्त और रूखा आहारादि सेवन करते हैं। इस जन्म-मृत्यु के प्रवाह को तैरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-५ - उद्देशक-४ सूत्र-१६९
जो भिक्षु (अभी तक) अव्यक्त अवस्थामें है, उसका अकेले ग्रामानुग्राम विहार करना दुर्यात् और दुष्पराक्रम है सूत्र-१७०
कईं मानव थोड़े-से प्रतिकूल वचन सूनकर भी कुपित हो जाते हैं । स्वयं को उन्नत मानने वाला अभिमानी मनुष्य प्रबल मोह से मूढ़ हो जाता है । उसको एकाकी विचरण करते हुए अनेक प्रकार की उपसर्गजनित एवं रोग
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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