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आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध / चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक 'इस ओदारिक शरीर का यह वर्तमान क्षण है इस प्रकार जो क्षणान्वेषी है. वह सदा अप्रमत्त रहता है। यह (अप्रमाद का) मार्ग आर्यों ने बताया है ।
साधक मोक्षसाधना के लिए) उत्थित होकर प्रमाद न करे। प्रत्येक का दुःख और सुख (अपना-अपना स्वतंत्र होता है) यह जानकर प्रमाद न करे ।
इस जगत में मनुष्य पृथक्-पृथक् विभिन्न अध्यवसाय वाले होते हैं, (इसलिए) उनका दुःख भी पृथक्-पृथक् होता है - ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है ।
वह साधक किसी भी जीव की हिंसा न करता हुआ, वस्तु के स्वरूप को अन्यथा न कहे । परीषहों और उपसर्गों का स्पर्श हो तो उनसे होने वाले दुःखस्पर्शों को विविध उपायों से प्रेरित होकर समभावपूर्वक सहन करे । सूत्र - १६०
ऐसा साधक शमिता या समता का पारगामी, कहलाता है।
जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं है, कदाचित् उन्हें आतंक स्पर्श करे, ऐसे प्रसंग पर धीर (वीर) तीर्थंकर महावीर न कहा कि उन दुःखस्पर्शो को (समभावपूर्वक) सहन करे ।'
यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे अवश्य छूट जाएगा। इस रूप देह के स्वरूप को देखो, छिन्न-भिन्न और विध्वंस होना, इसका स्वभाव है। यह अध्रुव अनित्य, अशाश्वत है, इसमें उपचय- अपचय होता है, परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है ।
सूत्र - १६१
जो आत्म-रमण रूप आयतन में लीन है, मोह ममता से मुक्त है, उस हिंसादि विरत साधक के लिए संसारभ्रमण का मार्ग नहीं है - ऐसा मैं कहता हूँ ।
सूत्र - १६२
इस जगत में जितने भी प्राणी परिग्रहवान हैं, वे अल्प या बहुत सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रहण करते हैं । वे इनमें (मूर्च्छा के कारण) ही परिग्रहवान हैं । यह परिग्रह ही परिग्रहियों के लिए महाभय का कारण होता है । साधकों ! असंयमी परिग्रही लोगों के वित्त- या वृत्त को देखो । (इन्हें भी महान भयरूप समझो ) । जो (परिग्रहजनित) आसक्तियों को नहीं जानता, वह महाभय को पाता है।
सूत्र - १६३
(परिग्रह महाभय का हेतु है) यह सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध है और सुकथित है, यह जानकर परमचक्षुष्मान् पुरुष! तू (परिग्रह से मुक्त होने) पुरुषार्थ कर । (जो परिग्रह से विरत हैं) उनमें ही ब्रह्मचर्य होता है। ऐसा मैं कहता हूँ । मैंने सूना है, मेरी आत्मा में यह अनुभूत हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित हैं । इस परिग्रह से विरत अनगार परीषहों को मृत्युपर्यन्त जीवनभर सहन करे ।
जो प्रमत्त हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ धर्म से बाहर समझ (देख ) । अतएव अप्रमत्त होकर परिव्रजन- विचरण कर | (और) इस (परिग्रहविरति रूप) मुनिधर्म का सम्यक् परिपालन कर ऐसा में कहता हूँ । उद्देशक- ३
अध्ययन-५
सूत्र - १६४
इस लोक में जितने भी अपरिग्रही साधक हैं, वे इन धर्मोपकरण आदि में (मूर्च्छा-ममता न रखने के कारण) ही अपरिग्रही हैं । मेधावी साधक (आगमरूप) वाणी सूनकर तथा पण्डितों के वचन पर चिन्तन-मनन करके (अपरिग्रही) बने आय (तीर्थंकरों) ने समता में धर्म कहा है।
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(भगवान महावीर ने कहा) जैसे मैंने ज्ञान दर्शन- चारित्र इन तीनों की सन्धिरूप साधना की है, वैसी साधना अन्यत्र दुःसाध्य है। इसलिए मैं कहता हूँ (तुम मोक्षमार्ग की इस समन्वित साधना में पराक्रम करो), अपनी शक्ति को छिपाओ मत ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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