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आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध / चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक अध्ययन-५ लोकसार उद्देशक- १
सूत्र - १५४
इस लोक में जितने भी कोई मनुष्य सप्रयोजन या निष्प्रयोजन जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों में विविध रूप में उत्पन्न होते हैं। उनके लिए शब्दादि काम का त्याग करना बहुत कठिन होता है।
इसलिए (वह) मृत्यु की पकड़ में रहता है, इसलिए अमृत (परमपद) से दूर होता है । वह (कामनाओं का निवारण करने वाला) पुरुष न तो मृत्यु की सीमा में रहता है और न मोक्ष से दूर रहता है।
सूत्र - १५५
वह पुरुष (कामनात्यागी) कुश की नोंक को छुए हुए (बारंबार दूसरे जलकण पड़ने से अस्थिर और वायु के झोंके से प्रेरित होकर गिरते हुए जलबिन्दु की तरह जीवन को (अस्थिर) जानता-देखता है । बाल, मन्द का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है, परन्तु वह (जीवन के अनित्यत्व) को नहीं जान पाता । वह बाल-हिंसादि क्रूर कर्म उत्कृष्ट रूप से करता हुआ तथा उसी दुःख से मूढ़ उद्विग्न होकर वह विपरीत दशा को प्राप्त होता है। उस मोह से बार-बार गर्भ में आता है, जन्म-मरणादि पाता है । इस (जन्म-मरण की परंपरा) में उसे बारंबार मोह उत्पन्न होता है ।
सूत्र - १५६
जिसे संशय का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जानता ।
सूत्र - १५७
कुशल है, वह मैथुन सेवन नहीं करता। जो ऐसा करके उसे छिपाता है, वह उस मूर्ख की दूसरी मूर्खता है। उपलब्ध कामभोगों का पर्यालोचन करके, सर्व प्रकार से जानकर उन्हें स्वयं सेवन न करे और दूसरों को भी कामभोगों के कटुफल का ज्ञान कराकर उनके अनासेवन की आज्ञा दे, ऐसा मैं कहता हूँ ।
सूत्र - १५८
हे साधको ! विविध कामभोगों में गृद्ध जीवों को देखो, जो नरक- तिर्यंच आदि यातना - स्थानों में पच रहे हैंउन्हीं विषयों से खिंचे जा रहे हैं। इस संसार प्रवाह में उन्हीं स्थानों का बारंबार स्पर्श करते हैं। इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीवी हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियों) के कारण आरम्भजीवी हैं । अज्ञानी साधक इस संयमी जीवन में भी विषय-पिपासा से छटपटाता हुआ अशरण को ही शरण मानकर पापकर्मों में रमण करता है ।
इस संसार के कुछ साधक अकेले विचरण करते हैं। यदि वह साधक अत्यन्त क्रोधी हैं, अतीव अभिमानी हैं. अत्यन्त मायी हैं, अति लोभी हैं, भोगोंमें अत्यासक्त हैं, नट की तरह बहुरूपिया हैं, अनेक प्रकार की शठता करता है, अनेक प्रकार के संकल्प करता है, हिंसादि आस्रवोंमें आसक्त रहता है, कर्मरूपी पलीते से लिपटा हुआ है. मैं भी साधु हूँ, धर्माचरण के लिए उद्यत हुआ हूँ, इस प्रकार से उत्थितवाद बोलता है, 'मुझे कोई देख न ले' इस आशंका से छिपछिपकर अनाचार करता है, वह यह सब अज्ञान और प्रमाद दोष से सतत मूढ़ बना (है), वह मोहमूढ़ धर्म नहीं जानता ।
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हे मानव जो लोग प्रजा (विषय- कषायों से आर्त्त पीड़ित हैं, कर्मबन्धन करने में ही चतुर हैं, जो आश्रवों से विरत नहीं हैं, जो अविद्या से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं, वे संसार के भंवर-जाल में बराबर चक्कर काटते रहते हैं । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन- ५ - उद्देशक - २
सूत्र - १५९
इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी हैं, वे (अनारम्भ-प्रवृत्त गृहस्थों) के बीच रहते हुए भी अनारम्भजीवी हैं । इस सावद्य से उपरत अथवा आर्हत्शासन में स्थित अप्रमत्त मुनि खयह सन्धि हैं । - ऐसा देखकर उसे क्षीण करता हुआ (क्षणभर भी प्रमाद न करे) ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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