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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक उस द्वीतिय महाव्रत की ये पाँच भावनाएं हैं । उन पाँचों में से पहली भावना इस प्रकार है-चिन्तन करके बोलता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना चिन्तन किये बोलता है, वह निर्ग्रन्थ नहीं । केवली भगवान कहते हैं-बिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्याभाषण का दोष लगता है। अतः चिन्तन करके बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, बिना चिन्तन किये बोलने वाला नहीं।
इसके पश्चात् दूसरी भावना इस प्रकार है-क्रोध का कटुफल जानेता है । वह निर्ग्रन्थ है । इसलिए साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिए । केवली भगवान कहते हैं-क्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति आवेशवश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है । अतः जो साधक क्रोध का अनिष्ट स्वरूप जानता है, वही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, क्रोधी नहीं।
तदनन्तर तृतीय भावना यह है-जो साधक लोभ का दुष्परिणाम जानता है, वह निर्ग्रन्थ है; अतः साधु लोभग्रस्त न हो । केवली भगवान का कथन है कि लोभ प्राप्त व्यक्ति लोभावेशवश असत्य बोल देता है । अतः जो साधक लोभ का अनिष्ट स्वरूप जानता है, वही निर्ग्रन्थ है, लोभाविष्ट नहीं।
इसके बाद चौथी भावना यह है-जो साधक भय का दुष्फल जानता है, वह निर्ग्रन्थ है । अतः साधक को भयभीत नहीं होना चाहिए । केवली भगवान का कहना है-भयप्राप्त भीरू व्यक्ति भयाविष्ट होकर असत्य बोल देता है अतः जो साधक भय का यथार्थ अनिष्ट स्वरूप जानता है, वही निर्ग्रन्थ है, न कि भयभीत ।
इसके अनन्तर पाँचवी भावना यह है-जो साधक हास्य के अनिष्ट परिणाम को जानता है, वह निर्ग्रन्थ है। अतएव निर्ग्रन्थ को हंसोड़ नहीं होना चाहिए । केवली भगवान का कथन है-हास्यवश हंसी करने वाला व्यक्ति असत्य भी बोल देता है। इसलिए जो मुनि हास्य का अनिष्ट स्वरूप जानता है, वह निर्ग्रन्थ है, न कि हंसी-मजाक करने वाला।
इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा स्वीकृत मृषावाद-विरमणरूप, द्वीतिय सत्यमहाव्रत का काया से सम्यक्स्प र्श करने, पालन करने, गृहीत महाव्रत को पार लगाने, कीर्तन करने एवं अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह मृषावादविरमणरूप द्वीतिय महाव्रत है। सूत्र - ५३८
भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्ता-दान का प्रत्याख्यान करता हूँ। वह इस प्रकार वह (ग्राह्य पदार्थ) चाहे गाँव में हो, नगर में हो या अरण्य में हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचेतन हो या अचेतन; उसे उसके स्वामी के बिना दिये न तो स्वयं ग्रहण करूँगा, न दूसरे से ग्रहण कराऊंगा और न ही अदत्त-ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करूँगा, यावज्जीवन तीन करणों से तथा मन-वचनकाया से यह प्रतिज्ञा करता हूँ । साथ ही मैं पूर्वकृत अदत्तादानरूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्मनिन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और अपनी आत्मा से अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ।
उस तीसरे महाव्रत की ये पाँच भावनाएं हैं
उसमें प्रथम भावना इस प्रकार है-जो साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, किन्तु बिना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं । केवली भगवान कहते हैं-जो बिना विचार किये मितावग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ अदत्त ग्रहण करता है । अतः तदनुरूप चिन्तन करके परिमित अवग्रह की याचना करने वाला साधु निर्ग्रन्थ कहलाता है, न कि बिना विचार किये मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला।
इसके अनन्तर दूसरी भावना यह है-गुरुजनों की अनुज्ञा लेकर आहार-पानी आदि सेवन करने वाला निर्ग्रन्थ होता है, अनुज्ञा लिये बिना आहार-पानी आदि का उपभोग करने वाला नहीं । केवली भगवान कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की अनुज्ञा प्राप्त किये बिना पान-भोजनादि का उपभोग करता है, वह अदत्तादान का सेवन करता है। इसलिए जो अनुज्ञा प्राप्त करके आहार-पानी आदि का उपभोग करता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अनुज्ञा ग्रहण किये बिना आहार-पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं।
अब तृतीय भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ साधु को क्षेत्र और काल के प्रमाणपूर्वक अवग्रह की याचना करनी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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