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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक चाहिए । केवली भगवान कहते हैं जो निर्ग्रन्थ इतने क्षेत्र और इतने काल की मर्यादापूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा नहीं करता, वह अदत्त का ग्रहण करता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु क्षेत्र काल की मर्यादा खोल कर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अन्यथा नहीं।
इसके अनन्तर चौथी भावना यह है-निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के पश्चात् बार-बार अवग्रह अनुज्ञा-ग्रहणशील होना चाहिए। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं जो निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, वह अदत्तादान दोष का भागी होता है । अतः निर्ग्रन्थ को एक बार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः पुनः अवग्रहानुज्ञा ग्रहणशील होना चाहिए।
इसके पश्चात् पाँचवी भावना यह है-जो साधक साधर्मिकों से भी विचार करके मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं । केवली भगवान का कथन हैबिना विचार किये जो साधर्मिकों से परिमित अवग्रह की याचना करता है, उसे साधर्मिकों का अदत्त ग्रहण करने का दोष लगता है। अतः जो साधक साधर्मिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वही निर्ग्रन्थ कहलाता है। बिना विचारे साधर्मिकों से मर्यादित अवग्रहयाचक नहीं।
इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, यावत् अंत तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा का सम्यक् आराधक हो जाता है।
भगवन् ! यह अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महाव्रत है। सूत्र - ५३९
इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, समस्त प्रकार के मैथुन-विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ । देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यंच-सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से मैथुन-सेवन कराऊंगा और न ही मैथुनसेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा । शेष समस्त वर्णन अदत्तादान-विरमण महाव्रत में यावत् व्युत्सर्ग करता हूँ तक के पाठ अनुसार समझना।
उस चतुर्थ महाव्रत की ये पाँच भावनाएं हैं-उन में पहली भावना यह है-निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की कामजनक कथा न कहे । केवली भगवान कहते हैं-बार-बार स्त्रियों की कथा कहने वाला निर्ग्रन्थ साधु शान्तिरूप चारित्र का और शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु को स्त्रियों की कथा बार-बार नहीं करनी चाहिए।
इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है-निर्ग्रन्थ साधु काम-राग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेषरूप से न देखे । केवली भगवान कहते हैं-स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामराग-पूर्वक सामान्य या विशेष रूप से अवलोकन करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामरागपूर्वक सामान्य या विशेष रूप से अवलोकन नहीं करना चाहिए।
इसके अनन्तर तीसरी भावना इस प्रकार है कि निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति एवं पूर्व काम क्रीड़ा का स्मरण न करे । केवली भगवान कहते हैं कि स्त्रियों के साथ में की हुई पूर्वरति पूर्वकृत-कामक्रीड़ा का स्मरण करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शान्तिरूप धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति एवं कामक्रीड़ा का स्मरण न करे।
चौथी भावना है-निर्ग्रन्थ अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन न करे, और न ही सरस स्निग्ध-स्वादिष्ट भोजन का उपभोग करे । केवली भगवान कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ प्रमाण से अधिक आहार-पानी का सेवन करता है तथा स्निग्ध-सरस-स्वादिष्ट भोजन करता है, वह शान्तिरूप चारित्र का नाश करने वाला, यावत् भ्रष्ट हो सकता है। इसलिए अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन या सरस स्निग्ध भोजन नहीं करना चाहिए।
इसके अनन्तर पंचम भावना है-निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन आदि का सेवन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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