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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को भावना सहित पंच-महाव्रतों और षड् जीवनिकायों के स्वरूप का व्याख्यान किया। सामान्य-विशेष रूप से प्ररूपण किया। सूत्र - ५३६
भन्ते ! मैं प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान-करता हूँ | मैं सूक्ष्म-स्थूल और त्रस-स्थावर समस्त जीवों का न तो स्वयं प्राणातिपात करूँगा, न दूसरों से कराऊंगा और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन करूँगा; मैं यावज्जीवन तीन करण से एवं मन-वचन-काया से इस पाप से निवृत्त होता हूँ । हे भगवन् ! मैं उस पूर्वकृत पाप (हिंसा) का प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ और गहाँ करता हूँ, अपनी आत्मा से पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ।
उस प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएं होती हैं-पहली भावना यह है-निर्ग्रन्थ-ईर्यासमिति से युक्त होता है, ईर्यासमिति से रहित नहीं । केवली भगवान कहते हैं-ईर्यासमिति से रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन करता है, धूल आदि से ढकता है, दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है, या पीड़ित करता है । इसलिए निर्ग्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होकर रहे, ईर्यासमिति से रहित होकर नहीं।
दूसरी भावना यह है-मन को जो अच्छी तरह जानकर पापों से हटाता है, जो मन पापकर्ता, सावध है, क्रियाओं से युक्त है, आस्रवकारक है, छेदन-भेदनकारी हे, क्लेश-द्वेषकारी है, परितापकारक है, प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है, इस प्रकार के मन को धारण न करे । मन को जो भलीभाँति जानकर पापमय विचारों से दूर रखता है वही निर्ग्रन्थ है। जिसका मन पापों से रहित है।
तीय भावना यह है जो साधक वचन का स्वरूप भलीभाँति जानकर सदोष वचनों का परित्याग करता है, वह निर्ग्रन्थ है। जो वचन पापकारी, सावध, क्रियाओं से युक्त, यावत् जीवों का उपघातक है; साधु इस प्रकार के वचन का उच्चारण न करे । जो वाणी के दोषों को भलीभाँति जानकर सदोष वाणी का परित्याग करता है, वही निर्ग्रन्थ है। उसकी वाणी पापदोष रहित हो।
चौथी भावना यह है-जो आदानभाण्डमात्रनिक्षेपण-समिति से युक्त है, वह निर्ग्रन्थ है । केवली भगवान कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ आदानभाण्डनिक्षेपणसमिति से रहित है, वह प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिघात करता है, यावत् पीड़ा पहुँचाता है । इसलिए जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपणासमिति से युक्त है, वही निर्ग्रन्थ है, जो आदानभाण्ड निक्षेपणासमिति से रहित है, वह नहीं।
पाँचवी भावना यह है-जो साधक आलोकित पान-भोजन-भोजी होता है, वह निर्ग्रन्थ होता है । अनालोकितपानभोजन-भोजी नहीं । केवली भगवान कहते हैं जो बिना देखे-भाले ही आहार-पानी सेवन करता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को हनन करता है यावत् उन्हें पीड़ा पहुंचाता है । अतः जो देखभाल कर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ है, बिना देखे-भाले आहार-पानी करने वाला नहीं।
इस प्रकार पंचभावनाओं से विशिष्ट तथा प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत का सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श करने पर, पालन करने पर गृहीत महाव्रत को पार लगाने पर, कीर्तन करने पर उसमें अवस्थित रहने पर, भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है । हे भगवन् ! यह प्राणातिपातविरमण रूप प्रथम महाव्रत है। सूत्र- ५३७
इसके पश्चात् भगवन् ! मैं द्वीतिय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज मैं इस प्रकार से मृषावाद और सदोषवचन का सर्वथा प्रत्याख्यान करता हूँ। साधु क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा बोले, न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण करो और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे । इस प्रकार तीन करणों से तथा मन-वचन-काया से मृषावाद का सर्वथा त्याग करे । इस प्रकार मृषावादविरमण रूप द्वीतिय महाव्रत स्वीकार करके हे भगवन् ! मैं पूर्वकृत मृषावाद रूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आलोचना करता हूँ, आत्मनिन्द करता हूँ, गर्दा करता हूँ, जो अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा व्युत्सर्ग करता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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