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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-५३४
भगवान चारित्र अंगीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गए। सभी देवों ने यह सूना तो हर्ष से पुलकित हो उठे। सूत्र- ५३५
श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संजीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे । उधर श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन-सम्बन्धी वर्ग को प्रतिवि-सर्जित करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया कि, “मैं आज से बारह वर्ष तक अपने शरीर का व्युत्सर्ग करता हूँ। इस अवधि में दैविक, मानुषिक या तिर्यंच सम्बन्धी जो कोई भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सब समुत्पन्न उपसर्गों को मैं सम्यक् प्रकार से या समभाव से सहूँगा, क्षमाभाव रखूगा, शान्ति से झेलूँगा। इस प्रकार का अभिग्रह धारण करने के पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं काया के प्रति ममत्व का त्याग किये हुए श्रमण भगवान महावीर दिन का मुहूर्त शेष रहते कार ग्राम पहुंच गए।
उसके पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं देहाध्यास का त्याग किये हुए श्रमण भगवान महावीर अनुत्तर वसति के सेवन से, अनुपम विहार से, एवं अनुत्तर संयम, उपकरण, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि, समिति, गुप्ति, कायोत्सर्गादि स्थान, तथा अनुपम क्रियानुष्ठान से एवं सुचरित के फलस्वरूप निर्वाण और मुक्ति मार्ग के सेवन से युक्त होकर आत्मा को प्रभावित करते हुए विहार करने लगे।
इस प्रकार विहार करते हुए त्यागी श्रमण भगवान महावीर को दिव्य, मानवीय और तिर्यंचसम्बन्धी जो कोई उपसर्ग प्राप्त होते, वे उन सब उपसर्गों के आने पर उन्हें अकलुषित, अव्यथित, अदीनमना एवं मन-वचन-काया की त्रिविध प्रकार की गुप्तियों से गुप्त होकर सम्यक् प्रकार के समभावपूर्वक सहन करते, उपसर्गदाताओं को क्षमा करते, सहिष्णुभाव धारण करते तथा शान्ति और धैर्य से झेलते थे।
__ श्रमण भगवान महावीर को इस प्रकार से विचरण करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए, तेरहवे वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु में दूसरे मास और चौथे पक्ष से अर्थात् वैशाख सुदी में, दशमी के दिन, सुव्रत नामक दिवस में विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर, पूर्वगामिनी छाया होने पर दिन के दूसरे प्रहर में जृम्भकग्राम नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर तट पर श्यामाकगृहपति के काष्ठकरण क्षेत्र में वैयावृत्यचैत्य के ईशानकोण में शालवृक्ष से न अति दूर, न अति निकट, उत्कटुक होकर गोदोहासन से सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल षष्ठभक्त से युक्त, ऊपर घुटने और नीचा सिर करके धर्मध्यानयुक्त, ध्यानकोष्ठ में प्रविष्ट हुए जब शुक्लध्यानान्तरिका में प्रवर्तमान थे, तभी उन्हें अज्ञान दुःख से निवृत्ति दिलाने वाले, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण अव्याहत निरावरण अनन्त अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुए।
वे अब भगवान अर्हत्, जिन, ज्ञायक, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी हो गए। अब वे देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समस्त लोक के पर्यायों को जानने लगे । जैसे कि जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, उनके भुक्त और पीत सभी पदार्थों को तथा उनके द्वारा कृत प्रतिसेवित, प्रकट एवं गुप्त सभी कर्मों को तथा उनके द्वारा बोले हुए, कहे हुए तथा मन के भावों को जानते, देखते थे। वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सब जीवों के समस्त भावों को तथा समस्त परमाणु पुद्गलों को जानते-देखते हुए विचरण करने लगे । जिस दिन श्रमण भगवान महावीर को अज्ञान-दुःखनिवृत्तिदायक सम्पूर्ण यावत् अनुत्तर केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ, उस दिन भवन-पति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं विमानवासी देव और देवियों के आने-जाने से एक महान दिव्य देवोद्योत हुआ, देवों का मेला-सा लग गया, देवों का कलकल नाद होने लगा, वहाँ का सारा आकाशमंडल हलचल से व्याप्त हो गया।
तदनन्तर अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने केवलज्ञान द्वारा अपनी आत्मा और लोक को सम्यक् प्रकार से जानकर पहले देवों को, तत्पश्चात् मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया। तत्पश्चात् केवलज्ञान-केवलदर्शन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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