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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-५२६
पहले उन मनुष्यों ने उल्लासवश वह शिबिका उठाई, जिनके रोमकूप हर्ष से विकसित हो रहे थे । तत्पश्चात् सूर, असुर, गरुड़ और नागेन्द्र आदि देव उसे उठाकर ले चले। सूत्र - ५२७
उस शिबिका को पूर्वदिशा की ओर से सुर (वैमानिक देव) उठाकर ले चलते हैं, जबकि असुर दक्षिण दिशा की ओर से, गरुड़ देव पश्चिम दिशा की ओर से और नागकुमार देव उत्तर दिशा की ओर से उठाकर ले चलते हैं। सूत्र-५२८
उस समय देवों के आगमन से आकाशमण्डल वैसा ही सुशोभित हो रहा था, जैसे खिले हुए पुष्पों से वनखण्ड, या शरत्काल में कमलों के समूह से पद्म सरोवर । सूत्र- ५२९
उस समय देवों के आगमन से गगनतल भी वैसा ही सुहावना लग रहा था, जैसे सरसों, कचनार या कनेर या चम्पकवन फूलों के झुण्ड से सुहावना प्रतीत होता है। सूत्र- ५३०
उस समय उत्तम ढोल, भेरी, झांझ, शंख आदि लाखों वाद्यों का स्वर-निनाद गगनतल और भूतल पर परमरमणीय प्रतीत हो रहा था। सूत्र- ५३१
वहीं पर देवगण बहुत से-शताधिक नृत्यों और नाट्यों के साथ अनेक तरह के तत, वितत, घन और शुषिर, यों चार प्रकार के बाजे बजा रहे थे। सूत्र- ५३२
उस काल और उस समय में, जबकि हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्णपक्ष की दशमी तिथि के सुव्रत के विजय मुहूर्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, पूर्व गामिनी छाया होने पर, द्वीतिय पौरुषी प्रहर के बीतने पर, निर्जल षष्ठभक्त-प्रत्याख्यान के साथ एकमात्र (देवदूष्य) वस्त्र को लेकर भगवान महावीर चन्द्रप्रभा नाम की सहस्रवाहिनी शिबिका में बिराजमान हुए थे; जो देवों, मनुष्यों और असुरों की परीषद् द्वारा ले जाई जा रही थी । अतः उक्त परीषद् के साथ वे क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश के बीचोंबीचमध्यभाग में से होते हुए जहाँ ज्ञातखण्ड नामक उद्यान था, उसके निकट पहुँचे । देव छोटे से हाथ-प्रमाण ऊंचे भूभाग पर धीरे-धीरे उस सहस्रवाहिनी चन्द्रप्रभा शिबिका को रख देते हैं । तब भगवान उसमें से शनैः शनैः नीचे उतरते हैं;
और पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर अलंकारों को उतारते हैं । तत्काल ही वैश्रमणदेव घुटने टेककर श्रमण भगवान महावीर के चरणों में झुकता है और भक्तिपूर्वक उनके उन आभरणालंकारों को हंसलक्षण सदृश श्वेत वस्त्र में ग्रहण करता है।
पश्चात् भगवान ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर के और बाएं हाथ से बाईं ओर के केशों का पंचमुष्टिक लोच किया । देवराज देवेन्द्र शक्र श्रमण भगवान महावीर के समक्ष घुटने टेक कर चरणोंमें झुकता है और उन केशों को हीरे के थाल में ग्रहण करता है। भगवान! आपकी अनुमति है, यों कहकर उन केशों को क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर देता है
इधर भगवान दाहिने हाथ से दाहिनी और बाएं हाथ से बाईं ओर के केशों का पंचमुष्टिक लोच पूर्ण करके सिद्धों को नमस्कार करते हैं; और 'आज से मेरे लिए सभी पापकर्म अकरणीय है, यों उच्चारण करके सामायिक चारित्र अंगीकार करते हैं । उस समय देवों और मनुष्यों-दोनों की परीषद् चित्रलिखित-सी निश्चेष्ट-स्थिर हो गई थी। सूत्र- ५३३
जिस समय भगवान चारित्र ग्रहण कर रहे थे, उस समय शक्रेन्द्र के आदेश से शीघ्र ही देवों के दिव्य स्वर, वाद्य के निनाद और मनुष्यों के शब्द स्थगित कर दिये।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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