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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- ५१३
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जो कि ज्ञातपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चूके थे, ज्ञात कुल से विनिवृत्त थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय थे, विदेहदत्ता के पुत्र थे, सुकुमार थे । भगवान महावीर तीस वर्ष तक विदेह रूप में गृह में निवास करके माता-पिता के आयुष्य पूर्ण करके देवलोक को प्राप्त हो जाने पर अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से, हिरण्य, स्वर्ण, सेना, वाहन, धन, धान्य, रत्न, आदि सारभूत, सत्वयुक्त, पदार्थों का त्याग करके याचकों को यथेष्ट दान देकर, अपने द्वारा दानशाला पर नियुक्त जनों के समक्ष सारा धन खुला करके, उसे दान रूप में देने का विचार प्रकट करके, अपने सम्बन्धी जनों में सम्पूर्ण पदार्थों का यथायोग्य विभाजन करके, संवत्सर दान देकर हेमन्तऋतु के प्रथम मास एवं प्रथम मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में, दशमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान ने अभिनिष्क्रमण करने का अभिप्राय किया। सूत्र - ५१४
श्री जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भगवान का अभिनिष्क्रमण एक वर्ष पूर्ण होते ही होगा, अतः वे दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक-वर्षी दान प्रारम्भ कर देते हैं। प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक प्रहर दिन चढ़ने तक उनके द्वारा अर्थ का दान होता है। सूत्र- ५१५, ५१६
प्रतिदिन सूर्योदय से एक प्रहर पर्यन्त, जब तक वे प्रातराश नहीं कर लेते, तब तक, एक करोड़ आठ लाख से अन्यून स्वर्णमुद्राओं का दान दिया जाता है।
इस प्रकार वर्ष में कुल तीन अरब, ८८ करोड़,८० लाख स्वर्णमुद्राओं का दान भगवान ने दिया। सूत्र- ५१७
कुण्डलधारी वैश्रमणदेव और महान् ऋद्धिसम्पन्न लोकान्तिक देव पंद्रह कर्मभूमियों में (होने वाले) तीर्थंकर भगवान को प्रतिबोधित करते हैं। सूत्र - ५१८
ब्रह्म (लोक) कल्प में आठ कृष्णराजियों के मध्य आठ प्रकार के लोकान्तिक विमान असंख्यात विस्तार वाले समझने चाहिए। सूत्र - ५१९
ये सब देव निकाय (आकर) भगवान वीर-जिनेश्वर को बोधित (विज्ञप्त) करते हैं-हे अर्हन देव ! सर्व जगत के लिए हितकर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करें। सूत्र-५२०
तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियाँ अपने-अपने रूप से, अपने-अपने वस्त्रों में और अपने-अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी-अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति और समस्त बल-समुदाय सहित अपने-अपने यान-विमानों पर चढ़ते हैं फिर सब अपने यान में बैठकर जो भी बादर पुद्गल हैं, उन्हें पृथक् करते हैं। बादर पुद्गलों को पृथक् करके सूक्ष्म पुद् गलों को चारों ओर से ग्रहण करके वे ऊंचे उड़ते हैं । अपनी उस उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य देव गति से नीचे ऊतरते क्रमशः तिर्यक्लोक में स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लाँघते हुए जहाँ जम्बूद्वीप है, वहाँ आते हैं । जहाँ उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश है, उसके निकट आ जाते हैं । उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश के ईशानकोण दिशा भाग में शीघ्रता से उतर जाते हैं।
देवों के इन्द्र देवराज शक्र ने शनैः शनैः अपने यान को वहाँ ठहराया । फिर वह धीरे धीरे विमान से ऊतरा । विमान से उतरते ही देवेन्द्र सीधा एक ओर एकान्त में चला गया। उसने एक महान् वैक्रिय समुद्घात करके इन्द्र ने अनेक मणि-स्वर्ण-रत्न आदि से जटित-चित्रित, शुभ, सुन्दर, मनोहर कमनीय रूप वाले एक बहुत बड़े देवच्छंदक का
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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