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कल्पसूत्रं
॥ ५० ॥
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तहप्पगारेहिंतो, अंतकुलेहिंतो, पंत-तुच्छ-किविण-दरिद्द - भिक्खाग - जाब- माहणकुलेहिंतो; तहप्पगारेसु उग्गकुलेसु वा, भोगकुलेसु वा, रायन्न - नाय - खत्तिय - इक्खाग - हरिवंसकुलेसु वा, अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइ - कुल-वंसेसु साहरावित्तए ॥ २४ ॥ तं गच्छ णं तुम देवाशुपिया ! समणं भगवं महावीरं माहणकुंडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवानंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिओ, खत्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवगुत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाfor वासगुत्ता कुच्छिसि गन्भत्ताए साहराहि; जे वि य णं से तिसलाए खत्तियाणीए गभे तं पियणं देवानंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गव्भत्ताए साहराहि, साहरिता मम एवं आणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणाहि ||२५|| तए णं से हरिणेगमेसी पायत्ताणियाहिवई देवे सक्केणं, देविंदेणं, देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्टे, जाव- हयहियए करयल
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कल्पद्रुम कलिका वृत्तियुक्तं•
व्याख्या.
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