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तृतीया विभक्ति (करण) जब द्वितीया विभक्ति अपना वक्तव्य समाप्त कर चुकी और अपनी प्रशंसा के गीत गा चुकी तब तृतीया विभक्ति ने प्रभु के चरण कमलों में नमस्कार कर उनकी सेवा में अपना यह निवेदन किया ।
भगवन् ! अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना सभ्यता नहीं है। द्वितीया विभक्ति ने व्यर्थ ही अपनी डींग हाँकी है । मैं इस प्रकार अपनी असभ्यता प्रगट नहीं करना चाहती । हाँ, मेरी जो विशेषताएँ हैं, वे आप के समक्ष रखती हूँ।
सर्वज्ञ देव ! मैं करण हूँ। करण का अर्थ होता है'क्रियतेऽनेन तत्करणम्' जिससे कार्य किया जाय वह करण है। कर्ता की प्रत्येक क्रिया में मैं ही सहायक बनती हूँ। यदि मैं न होऊँ तो कर्ता कुछ भी नहीं कर सकता। मेरे द्वारा ही कर्ता कर्म की निष्पत्ति करता है। 'तक्षकः कुठारेण काष्ठं छिनत्ति'-क्या
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