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विभक्ति संवाद
कभी आज तक किसी ने बिना कुठार के बढ़ई द्वारा काष्ठ में छिदि-क्रिया देखी है ? कभी नहीं । अतः मैं सब से महान् हूँ ।
करण में ही नहीं, मैं हेतु में भी चलती हूँ । फलसाधन योग्य पदार्थ हेतु होता है | व्याकरण में हेतु का बहुत मान है । धनेन कुलम्, विद्यया यशः इत्यादि लाखों प्रयोग हेतु के बने हुए हैं। अस्तु, सुप्रसिद्ध हेतु प्रयोगों में भी मेरा ही प्रयोग किया जाता है ।
करण और हेतु ही नहीं, कर्ता में भी मेरा प्रयोग होता है । प्रथमा विभक्ति ने कर्ता पर जो एक मात्र अपना ही अधिकार बतलाया है, वह असत्य है । कर्ता और कर्म दो वस्तु हैं । जब कर्ता मुख्य होता है तब कर्ता में प्रथमा विभक्ति और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । और जब कर्ता गौण होता है, तब कर्ता में तृतीया विभक्ति और कर्म में प्रथमा विभक्ति हो जाती है । गुरुदेव ! देखा मेरा प्रमुख ! जब मैं कर्ता पर अपना अधिकार कर लेती हूँ तो प्रथमा को अपना स्थान छोड़ना पड़ता है और कर्म का आश्रय लेना होता है, जैसे कि 'जिनदत्तेन भोजनं कृतम्' आदि प्रयोगों में ।
करण, हेतु और कर्ता ही नहीं, मैं इत्थंभूत लक्षण में भी रहती हूँ । इत्थंभूतलक्षण का लक्षण है— इमं कञ्चित् प्रकार मापनः इत्थंभूतः, स लक्ष्यते येन तदित्थंभूतलक्षणम् ।' जो किसी प्रकार को - विशेषण को प्रत हो, वह इत्थंभूव होता है । इत्थंभूत जिससे लक्षित हो, वह इत्थंभूत लक्षण है। जैसे कि - 'कमण्डलुबा छात्रमद्राक्षीत् ' इस प्रयोग में छात्र इत्थंभूत है, और वह कमण्डलु से लक्षित है, अतः कमण्डलु हुआ इत्थंभूतलक्षण ।
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