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सिद्धान्तकल्पवल्ली [अविद्यादिमें साक्षिप्रकाश्यत्ववाद
१५. अविद्यादीनामावृतानावृतसाक्षिचैतन्यप्रकाश्यत्ववादः
ननु चिन्मात्रावारकतमसा स्वयमावृतः साक्षी । स कथमविद्यादीनामवभासयिता भवेदिति चेत् ॥ ८८ ॥ राहुच्छन्नश्चन्द्रो राहुं यद्वत् प्रकाशयति । तमसाऽऽवृतोऽपि साक्षी तमः प्रकाशयति तद्वदित्याहुः ॥८९॥ साक्ष्यवभास्यसुखादौ संदेहादेरदर्शनतः । साक्षिणमपहाय तमोऽन्यत्रैवाऽऽवृतिकृदित्यपरे ॥ ९० ॥
त्विति । विशिष्टोपहितयोर्भेदस्य सिद्धान्तसमतत्वादन्तःकरणविशिष्टः प्रमाता तदुपहितः साक्षीति विवेक इति भावः ॥ ८७ ।। ___ ननूक्तरूपः साक्षी चैतन्यावारकाविद्यावृतः सन् कथमविद्यादिकमवभासयेदिति शकते-नन्विति ॥ ८८॥
राहुवदविद्या स्वावृतप्रकाशकप्रकाश्येति मतेन परिहरति-राहुच्छन्न इति ॥ ८९ ॥ ___वस्तुतस्तु साक्षिभास्याविद्याहंकारसुखादावावरणकार्यसंदेहाद्यदर्शनादज्ञानं साक्षिचैतन्यं विहायाऽन्यत्र चैतन्ये आवरणं करोतीति मतान्तरमाह-साक्षीति ।। ९० ॥ ही साक्षी है अर्थात् विशिष्ट और उपहितोंका भेद सिद्धान्तसम्मत होनेसे अन्तःकरणविशिष्ट चैतन्य प्रमाता और अन्तःकरणोपहित चैतन्य साक्षी है, ऐसा विवेक करते हैं ।। ८७ ।। ___ 'ननु' इत्यादि । शङ्का करते हैं कि उक्तरूप साक्षी, स्वयं चैतन्यमात्रकी आवारक अविद्यासे आवृत होनेसे, अविद्यादिका अवभास करनेवाला कैसे बन सकता है ? अर्थात् स्वयं आवृत रह कर औरोंका प्रकाशन किस तरह कर सकेगा ? ॥ ८८ ॥
पूर्वोक्त शङ्काका परिहार कहते हैं-'राहुच्छन्नश्चन्द्रो' इत्यादिसे।
जैसे राहुसे आच्छादित (आवृत) चन्द्र राहुका प्रकाश करता है, वैसे ही अविद्यासे आवृत साक्षी भी अविद्या आदिका प्रकाश करता है अर्थात् राहुकी नाँई अविद्या स्वावृत प्रकाशसे प्रकाश्य है ।। ८९ ॥
इस विषयमें मतान्तर दर्शाते हैं-'साक्ष्यवभास्यः' इत्यादिसे ।
वास्तव विचारसे तो साक्षिभास्य अविद्या, अहंकार और सुखादिमें आवरणके कार्य सन्देह आदि देखनेमें नहीं आते, अतः साक्षिचैतन्यको छोड़कर अन्य चैतन्यमें अविद्या आवरण करती है। ऐसा कई एक वेदान्तैकदेशियोंका मत है ॥९०॥
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