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प्रथम स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
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साक्षी चेदज्ञानानावृतरूपो भवेत्तर्हि । तद्रूपोऽप्यानन्दः संततमेव प्रकाशेत ॥ ९१ ॥ इति चेदयमानन्दो भासत एवाऽत एव खलु । आत्मनि परमप्रेमास्पदत्वमिति केचिदत्राऽऽहुः ॥ ९२ ॥ आनन्दो मयि नाऽस्ति न भासत इत्यनुभवानुसारेण ।
आनन्दांशे साक्षिण आवरणं केचिदाचख्युः ॥ ९३ ॥ १६. अहंकारादिस्मृतिसिद्ध्यर्थसंस्काराधानवादः
नित्येन साक्षिणा तत्संस्कारोत्पादनायोगात् । तद्भास्याहंकाराद्यनुसंधानं कथं भवेदिति चेत् ॥ ९४ ॥
ननु साक्षिण्यावरणानभ्युपगमे तस्याऽऽनन्दरूपताऽपि भासेतेत्याशङ्कय इष्टापत्त्या परिहरति श्लोकद्वयेन-साक्षीति ॥ ९१ ॥
इति चेदिति । निगदव्याख्यानमेतत् ॥ ९२ ॥
अनुभवानुसारिणां मतमाह-आनन्दो मयीति । सुगममेतत् । साक्षिण्यविद्याकरिस्पतभेदेनाऽऽवरणानावरणयोरविरोधादिति भावः ॥ ९३ ॥
ननु कथं साक्षिभास्याहंकारादीनामनुसंधानम् ? नष्टज्ञानसूक्ष्मावस्थानरूपसंस्कार
यदि साक्षीमें आवरण नहीं मानेंगे, तो उसकी आनन्दरूपता भी भासेगी; ऐसी आशङ्का करके इस विषयमें इष्टापत्ति मानकर दो श्लोकोंसे परिहार करते हैं-'साक्षी' इत्यादिसे । __ साक्षी यदि अज्ञानसे आवृत न होगा, तो साक्षीरूप आनन्द सदा प्रकाशित रहेगा, ऐसा यदि कहो तो ठीक ही है, क्योंकि उक्त आनन्द भासता ही है, इसीसे तो आत्मामें परमप्रेमास्पदता बनी रहती है। ऐसा कई एक अन्य मतवाले कहते हैं ॥९१,९२॥
अब इस विषयमें अनुभवानुसारियोंका मत दर्शाते हैं-'आनन्दो' इत्यादिसे। 'मुझमें आनन्द नहीं है और भासता नहीं है' ऐसा अनुभव होता है। इस अनुभवके अनुसार साक्षीका आनन्दांशमें आवरण है, ऐसा कई एक कहते हैं अर्थात् साक्षीमें अविद्याकल्पितभेदसे आवरण और अनावरण दोनोंका विरोध नहीं है । ९३ ॥
'नित्येन' इत्यादि । ज्ञानके रहते नष्ट ज्ञानके सूक्ष्मावस्थानरूप संस्कारका होना
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