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प्रथम स्तबक]
भाषानुवादसहिता
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उक्तं हि तत्वशुद्धाविदमंशा रूप्यकोटिरिव । स ब्रह्मकोटिरेव प्रतिभासाजीवकोटिरिति ॥ ८६ ॥ केचिदविद्योपाधि वः साक्षीति भाषन्ते । अन्ये त्वन्तःकरणोपाधि वः स हीति मन्यन्ते ।। ८७ ॥
यथा 'इदं रजतम्' इति म्रमस्थले वस्तुतः शुक्तिकोट्यन्तर्गतोऽपि इदमंशः प्रतिभासतो रजतकोटि:-रजताभिन्नः, तथा ब्रह्मकोटिरेव साक्षी प्रतिभासतो जीवकोटिरिति मतान्तरमाह-उक्तं हीति ॥ ८६ ॥
अविद्योपाधिको जीवः साक्षाद् द्रष्टत्वात् कर्तृत्वाद्यारोपभाक्त्वेऽपि स्वयमुदासीनत्वात् साक्षीति मतान्तरमाह- केचिदिति । 'एको देवः' इति श्रुतिस्तु वास्तवब्रह्माभेदाभिप्रायेति भावः । अविद्योपाधिको जीवो न साक्षी, पुरुषान्तरान्तःकरणादीनामपि पुरुषान्तरं प्रति स्वान्तःकरणभासकसाक्षिसंसर्गाविशेषेण प्रत्यक्षस्वापत्तेः, किन्तु अन्तःकरणोपाधिको जीव एव स इति मतान्तरमाह--अन्ये
निवृत्तिका अनुमोदन करनेवाला और स्वयं उदासीन है, वही 'साक्षी' कहलाता है; ऐसा तत्त्वकौमुदीप्रन्थमें उपपादन किया है ॥ ८५ ॥
इसी विषयमें तत्त्वशुद्धिकारका मत कहते हैं-'उक्तम्' इत्यादिसे ।
तत्त्वशुद्धि ग्रन्थमें कहा गया है कि जहाँ 'इदं रजतम्' (सीपके टुकड़ेमें 'यह चाँदी है ) ऐसा भ्रम होता है, वहाँ जैसे वास्तवमें इदमंश शुक्तिकोटिके अन्तर्गत होनेपर भी प्रतिभासमात्रसे रजतकोटि ( रजतसे अभिन्न-सा ) प्रतीत होता है। वैसे ही यद्यपि वस्तुतः साक्षी ब्रह्मकोटि ही है, तथापि प्रतिभासतः जीवकोटि-सा प्रतीत होता है ॥ ८६ ।।
इस विषयमें और भी मत दर्शाते हैं-'केचिद०' इत्यादिसे।
कई एक तो कहते हैं कि अविद्योपाधि जीव, साक्षात् द्रष्टा होनेसे और कर्तृत्वादि आरोपका भागी होनेपर भी स्वयं उदासीन होनेसे साक्षी है; और ‘एको देवः' इत्यादि श्रुति तो वास्तव ब्रह्माभेदका बोधन करती है। अन्यमतवाले यों कहते हैं-अविद्यो. पाधिक जीवको साक्षी माननेमें अन्य पुरुषके अन्तःकरण आदिमें भी, पुरुषान्तरके प्रति अपने अन्तःकरणके भासक साक्षीका संसर्ग होनेसे प्रत्यक्षत्वापत्ति होगी, अतः अविद्योपाधिकको साक्षी मानना ठीक नहीं है, किन्तु अन्तःकरणोपाधिक जीव
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