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सिद्धान्त कल्पवल्ली [ आवरणाभिभववाद
९. अभेदाभिव्यक्तिवादः
का च द्वितीयपक्षेऽमेदाभिव्यक्तिरत्राऽऽहुः । विषयावच्छिन्नान्तःकरणप्रतिबिम्बचेतनैक्यमिति ॥ ६४ ॥ वृत्तौ यः प्रतिविम्बो विषयावच्छिन्नचिद्व्यक्तेः । तस्याऽन्तःकरण परिच्छिन्नचितैकत्वमित्यपरे ॥ ६५ ॥ यच्चैतन्यं विषयावच्छिन्नं बिम्बभूतमेतस्य । विम्बत्वोपहितस्यैकत्वं जीवेन सेत्यन्ये ॥ ६६ ॥
द्वितीयं पक्ष प्रश्नपूर्वकं निरूपयति - का चेति । तटाककेदारसलिलयोः कुल्याद्वारेव वृत्तिद्वारा विषयावच्छिन्नान्तःकरण प्रतिबिम्ब चैतन्ययोरे की भावोऽभेदाभिव्यक्तिरित्यर्थः ॥ ६४ ॥
बिम्ब स्थानीयस्य विषयावच्छिन्न चैतन्यस्य वृत्तौ यः प्रतिबिम्बः तस्याऽन्तःकरणपरिच्छिन्न जीवचैतन्येने की भावोऽभेदाभिव्यक्तिरिति मतान्तरमाह - वृत्ताविति ॥ ६५ ॥
अस्तु वा बिम्ब स्थानीयस्य विषयावच्छिन्नब्रह्मचैतन्यस्य चैतन्यात्मना उप
ऊपरके तीन पक्षोंमें से द्वितीय पक्षका प्रश्नपूर्वक निरूपण करते हैं—' का च' इत्यादिसे । ऊपर द्वितीय पक्ष में जो अभेदको अभिव्यक्ति कही है, वह किस प्रकार होती है ? इस विषय में कोई यों कहते हैं कि विषयावच्छिन्न 'चेतन और अन्तःकरणप्रतिबिम्ब चेतन — इन दोनोंका ऐक्य ही अभेदाभिव्यक्ति है, अर्थात् तालाब और खेतका जल कुल्याके ( खुदी हुई नालीके) द्वारा जैसे ऐक्यापन्न हो जाता है, वैसे ही वृत्ति द्वारा विषयावच्छिन्न और अन्तःकरणप्रतिबिम्ब दोनों चेतन का एकीभाव ही अभेदाऽभिव्यक्ति है, ऐसा अर्थ है ॥ ६४ ॥
'वृत्तौ' इत्यादि । बिम्बस्थानीय विषयावच्छिन्न चैतन्यका वृत्तिमें जो प्रतिबिम्ब है, उस प्रतिबिम्बकी अन्तःकरण से परिच्छिन्न जीवचैतन्यके साथ एकता ही अभेदाभिव्यक्ति कही जाती है; ऐसा कई एकका मत है ॥ ६५ ॥
'यच्चैतन्यम्' इत्यादि । बिम्बस्थानीय विषयावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्यका चैतन्यात्मशङ्का करनेवालेका आशय है । इसका समाधान करते हैं कि यद्यपि प्रथम पक्षमें वृत्तिका अमेदाभिव्यक्तिरूप प्रयोजन मानते हैं, तथापि उस पक्षमें जीव व्यापक है और अमेदाभिव्यक्तिपक्षमें जीव परिच्छिन्न है, इसलिए दोनों पक्ष भिन्न हैं, अतः साङ्कर्यका प्रसङ्ग नहीं है, यह तात्पय है ।
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