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प्रथम स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
१०. आवरणाभिभववादः का वा तृतीयपक्षेऽज्ञानावरणाभिभूतिरिह केचित् । अज्ञानांशविनाशः कटवद्वेष्टनमथाऽपसरणमिति ॥ ६७ ॥
लक्षितरूपेणैकीभावोऽभेदाभिव्यक्तिः। तथापि न जीवब्रह्मसाकर्यम्, न वा ब्रह्मणः सर्वज्ञवाभावापत्तिः, तस्य च बिम्बत्वविशिष्टरूपेण प्रतिबिम्बाद्भदेऽपि तदुपलक्षितरूपेणाऽभेदात् । एवं च विम्बत्वोपलक्षितस्य विषयावच्छिन्नबिम्बचैतन्यस्य जीवचैतन्येनकीभावोऽभेदाभिव्यक्तिरिति मतान्तरमाह-यच्चैतन्यमिति ॥ ६६ ॥
तृतीयं पक्षं प्रश्नव्याजेनाऽऽक्षिपति-केति । आवरणाभिभवस्याऽज्ञाननाशरूपत्वे घटज्ञानेऽपि तन्नाशे मोक्षप्रसङ्ग इति भावः । चैतन्यमात्रावारकस्य मूलाज्ञानस्य विषयावच्छिन्नप्रदेशे खद्योतादिप्रकाशेन महान्धकारस्येव ज्ञानेनैकांशनाशो वा कटवत्संवेष्टनं वा भीतभटवदपसरणं वा अभिभव इति पक्षभेदेनोत्तरमाहअज्ञानेति ॥ ६७ ॥ भाव द्वारा उपलक्षितरूपसे एकीभाव अभेदाभिव्यक्ति भले ही हो, तथापि न तो जीवब्रह्मके साङ्कर्यका प्रसङ्ग होता है और न ब्रह्ममें सर्वज्ञत्वके अभावकी आपत्ति आती है, क्योंकि ब्रह्मका बिम्बत्वविशिष्टरूपसे प्रतिबिम्बसे भेद होनेपर भी तदुपलक्षितरूपसे अभेद है । अतः अन्य मतवाले बिम्बत्वोपहित (बिम्बत्वोपलक्षित) विषयावच्छिन्न बिम्बभूत चैतन्यका जीवचैतन्यके साथ एकत्व (एकीभाव) को अभेदाभिव्यक्ति कहते हैं ।। ६६ ॥
पूर्व ५९ वें श्लोकमें विवरणकारोक्त परिहारके तृतीय पक्षमें अज्ञानावरणा. भिभवका जो निर्देश किया था, उसका प्रश्नरूपसे आक्षेप करते हैं-'का वा' इत्यादि से।
यदि आवरणाभिभव अज्ञाननाशस्वरूप ही माना जाय, तो घटज्ञानसे अज्ञाननाश होनेपर मोक्षका प्रसङ्ग हो जायगा। घने अन्धकारमें जुगुनूंके प्रकाशसे जैसे अन्धकारके एक देशका नाश होता है, वैसे ही चैतन्यमात्रका आवरण करनेवाले मूल ज्ञानके एक देशका ( थोड़े अंशका) विषयावच्छिन्न प्रदेशमें ज्ञानसे नाश होना आवरणाभिभव है, अथवा चटाईकी नाई उसका संवेष्टन (सिकुड़ जाना) आवरणाभिभव है ? या भयभीत भटकी-योद्धाकी-नाई अन्यत्र खिसक जाना आवरणाभिभव है ? इन तीन प्रकारों में अभिभवपदसे कौन-सा प्रकार अभिमत है ? ॥६७॥
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